Friday, February 22, 2019

अष्टमूर्त्यष्टक स्तोत्र / अष्टमूर्तिस्तव / मूर्त्यष्टकस्तोत्र


अष्टमूर्त्यष्टक स्तोत्र / अष्टमूर्तिस्तव / मूर्त्यष्टकस्तोत्र


ब्रह्माजी के देवर्षि नारद, अंगिरा और भृगु तीन मानस पुत्र थे। अंगिरा के पुत्र बृहस्पति थे और भृगु के पुत्र का नाम कवि (शुक्र) था। महर्षि अंगिरा बृहस्पति और कवि को शिक्षा देने लगे और भृगु तपस्या के लिए वन में चले गए। कवि कुशाग्रबुद्धि होने से पढ़ने में तेज थे इसलिए अंगिरा पुत्रमोह के कारण दोनों बच्चों की शिक्षा में भेदभाव करने लगे। कवि ने जब देखा कि बृहस्पति की तरह उसे उतनी शिक्षा नहीं मिल रही है तो वह ऋषि अंगिरा की अनुमति लेकर किसी दूसरे गुरु की खोज में चल दिए। गौतम ऋषि के आश्रम में जाकर कवि ने उनसे संसार के सर्वश्रेष्ठ गुरु के बारे में पूछा। महर्षि गौतम बोले-'तीनों लोकों में तो सर्वश्रेष्ठ गुरु भगवान शंकर हैं। तुम उनकी शरण में जाओ।'


लिंगरूपो महादेवो ह्यर्चनीयो मुमुक्षुभि:।
शिवात् परतरो नास्ति भुक्तिमुक्तिप्रदायक:।। स्कन्दपुराण (माहेश्वरखण्ड)

अर्थात्-'मुमुक्षुजनों को शिवलिंगरुपी महादेव की आराधना करनी चाहिए, क्योंकि उनसे बढ़कर भुक्ति और मुक्ति देने वाले अन्य कोई देवता नहीं हैं।'

वाराणसीपुरी जाकर भृगुपुत्र कवि ने भगवान विश्वनाथ का ध्यान करके एक शिवलिंग की स्थापना की व एक कुएं का निर्माण कराया। विशेष शिवपूजन अनुष्ठान में संख्या का बहुत महत्व होता है। एक लाख लोटे जल, एक लाख बेलपत्र, एक लाख पुष्प (कमल), एक लाख अक्षत, एक लाख तिल, एक लाख जौ, एक लाख अनाज (गेहूँ, मूंग) व शिवलिंगी के बीज आदि वैशाख, श्रावणमास या चतुर्मास में भगवान शिव को अर्पित किए जाते हैं। चूंकि कवि का लक्ष्य बहुत ऊंचा था अत: उनकी पूजा व तप भी अत्यन्त कठोर व दुस्सह थे।

उन्होंने पंचामृत से व सुगन्धित द्रव्यों से उस शिवलिंग का एक लाख बार स्नान कराया और हजारों बार उस शिवलिंग पर सुगन्धित उबटन (कपूर, कस्तूरी, अगरु व कंकोल मिलाकर बनाया गया लेप) व चन्दन का लेपन करते थे। शिवजी की प्रसन्नता के लिए नाना प्रकार के पुष्पों व पत्रों से उनका श्रृंगार करते। वे भगवान शिव को नृत्य और गीत से रिझाते, तरह-तरह की भेंट सामग्री अर्पित करते व सहस्त्रनाम आदि द्वारा शिव का स्तवन करके कठोर नियम का पालन करने लगे। जब उन्होंने शिवजी को प्रसन्न होते हुए नहीं देखा तो अत्यन्त कठिन दूसरा नियम ले लिया।

मन व इन्द्रियों के चंचलतारूपी मल को ध्यान के जल से धोकर कवि ने अपने चित्त को निर्मल कर लिया और फिर उस चित्तरूपी रत्न को भगवान शिव को अर्पण कर केवल धूमकणों (होम का धुआं) का पान करते थे। भगवान शंकर कवि के घोर तप से प्रसन्न होकर शिवलिंग से प्रकट हो गए और कवि से वर मांगने के लिए कहा। साक्षात् पार्वतीपति भगवान शिव को देखकर भृगुपुत्र कवि 'अष्टमूर्त्यष्टक स्तोत्र' द्वारा भगवान शंकरजी की स्तुति करने लगे। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, यजमान, चन्द्रमा और सूर्य-इन आठ में अधिष्ठित शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, पशुपति, महादेव और ईशान ये भगवान शंकर की अष्टमूर्तियां हैं। भृगुनन्दन कवि ने कहा-
|| अष्टमूर्त्यष्टक स्तोत्र ||
भार्गव उवाच
त्वं भाभिराभिरभिभूय तमः समस्तमस्तं नयस्यभिमतानि निशाचराणाम् ।।
देदीप्यसे मणेगगनेहिताय लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ।। १ ।।
लोकेतिवेलमतिवेलमहामहोभिर्निर्मासि कौमुदमुदं च समुत्समुद्रम् ।।
विद्राविताखिलतमाः सुतमोहिमांशो पीयूषपूरपरिपूरित तन्नमस्ते ।। २ ।।
त्वं पावने पथि सदागतिरस्युपास्यः कस्त्वां विना भुवनजीवनजीवतीह ।।
स्तब्धप्रभंजन विवर्धित सर्वजंतोसंतोषिताहि कुलसर्वगतन्नमस्ते ।। ३ ।।
विश्वैकपावकनतावकपावकैक शक्तेर्ऋतेऽमृतवतामृतदिव्यकार्यम् ।।
प्राणित्यदो जगदहो जगदंतरात्मंस्तत्पावक प्रतिपदं शमदं नमस्ते ।। ४ ।।
पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र चित्रं विचित्रसुचरित्र करोषि नूनम् ।।
विश्वपवित्रममलं किल विश्वनाथ पानावगाहनत एतदतो नतोस्मि ।। ५ ।।
आकाशरूप बहिरंतरुतावकाश दानाद्विकस्वरमिहेश्वर विश्वमैतत् ।।
त्वत्तः सदा सदयसंश्वसिति स्वभावात्संकोचमेति भवतोस्मि नतस्ततस्त्वाम् ।। ६ ।।
विश्वंभरात्मक बिभर्ति विभोऽत्रविश्वं को विश्वनाथ भवतोन्य तमस्तमोरे ।।
तत्त्वां विना न शमिनां हिमजाहिभूषस्तव्योऽपरः परपरप्रणतस्ततस्त्वाम् ।। ७ ।।
आत्मस्वरूप तव रूप परंपराभिराभिस्ततं हर चराचर रूपमेतत् ।।
सर्वांतरात्मनिलयप्रतिरूपरूपनित्यंनतोस्मि परमात्मतनोऽष्टमूर्ते ।। ८ ।।
इत्यष्टमूर्तिभि रिमाभिरुमाभिवंद्यवंद्यातिवंद्य भव विश्वजनीनमूर्ते ।।
एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत सर्वाथर्सार्थपरमार्थ ततो नतोस्मि ।। ९ ।।


शुक्राचार्य की इस स्तुति से मृत्युञ्जय भगवान् शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने मृत व्यक्तियों को भी जीवित करने वाली संजीवनी विद्या उन्हें दे दी।


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