Friday, December 28, 2018

प्रत्यङ्गिरा

प्रत्यंगिरा एक हिन्दू देवी हैं। इनका सिर सिंहिनी का है और शेष शरीर मानव जैसा। प्रत्यंगिरा शक्ति की रूप हैं। वे विष्णु, दुर्गा, काली तथा नरसिंह के एकीकृत रूप हैं।

मूर्ख कौन ?



मूर्ख कौन?

किसी गांव में एक सेठ रहता था। उसका एक ही बेटा था, जो व्यापार के काम से परदेस गया हुआ था। सेठ की बहू एक दिन कुएँ पर पानी भरने गई। घड़ा जब भर गया तो उसे उठाकर कुएँ के मुंडेर पर रख दिया और अपना हाथ-मुँह धोने लगी। तभी कहीं से चार राहगीर वहाँ आ पहुँचे। एक राहगीर बोला, "बहन, मैं बहुत प्यासा हूँ। क्या मुझे पानी पिला दोगी?"

सेठ की बहू को पानी पिलाने में थोड़ी झिझक महसूस हुई, क्योंकि वह उस समय कम कपड़े पहने हुए थी। उसके पास लोटा या गिलास भी नहीं था जिससे वह पानी पिला देती। इसी कारण वहाँ उन राहगीरों को पानी पिलाना उसे ठीक नहीं लगा।

बहू ने उससे पूछा, "आप कौन हैं?"

राहगीर ने कहा, "मैं एक यात्री हूँ"

Sunday, December 9, 2018

शाक सप्तमी व्रत


शाक सप्तमी व्रत

 शाकसप्तमी व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी पर आरम्भ होता है। प्रत्येक मास वर्ष भर शाकसप्तमी व्रत किया जाता है। पूरे वर्ष को 4-4 मासों के तीन दलों में विभाजित कर दिया गया है।
 पंचमी को एकभक्त होकर व्रत करना चाहिए। षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास करना चाहिए।
 ब्राह्मणों का मसालेदार तरकारियों से भोज और स्वयं रात्रि में भोजन करना चाहिए।
 तिथिव्रत; सूर्य देवता; प्रत्येक चार मासों की अवधि में पुष्पों (अगस्ति, सुगन्धित, करवीर) से, अंजनी या लेपों (कुंकुम, श्वेत चन्दन एवं लाल चन्दन) से, धूपों (अपराजित, अगुरु, गुग्गुल) और नैवेद्यों (पायस, गुड़, रोटी, पकाया हुआ भात) से पूजा करनी चाहिए।

Saturday, December 8, 2018

मंगल देवता


मंगल देवता
भारतीय ज्योतिष में मंगल इसी नाम के ग्रह के लिये प्रयोग किया जाता है। इस ग्रह को अंगारक (यानि अंगारे जैसा रक्त वर्ण), भौम (यानि भूमि पुत्र) भी कहा जाता है। मंगल युद्ध का देवता कहलाता है । यह ग्रह मेष एवं वृश्चिक राशियों का स्वामी कहलाता है। मंगल रुचक महापुरुष योग या मनोगत विज्ञान का प्रदाता माना जाता है। इसे रक्त या लाल वर्ण में दिखाया जाता है एवं यह त्रिशूल, गदा, पद्म और भाला या शूल धारण किये दर्शाया जाता है। पत्नी का नाम ज्वालिनी देवी तथा इसका वाहन भेड़ होता है एवं सप्तवारों में यह मंगलवार का शासक कहलाता है।

नागलोक


नागलोक
वराहपुराण में नागो की उत्पत्ति के संबंध में यह कथा लिखी है । सृष्टि के आरंभ में कश्यप उत्पन्न हुए । उनकी पत्नी कद्रू से उन्हें ये पुत्र उत्पन्न हुए— अनन्त, वासुकि, कालिय, धनंजय, कर्कोटक, तक्षक, पद्म, ऐरावत, महापद्म, शंकु, शंक, संवरण, धृतराष्ट्र, दुर्धर्ष, दुर्जय, दुर्मुख, बल, गोक्ष, गोकामुख तथा विरूप आदि को कद्रू ने जन्म दिया था। कश्यप के ये सब पुत्र नाग कहलाए । इनके पुत्र, पौत्र बहुत ही क्रूर और विषधर हुए । इनसे प्रजा क्रमशः क्षीण होने लगी । प्रजा ने जाकर ब्रह्मा के यहाँ पुकार की, ब्रह्मा ने नागों को बुलाकर कहा, जिस प्रकार तुम हमारी सृष्टि का नाश कर रहे हो उसी प्रकार माता के शाप से तुम्हारा भी नाश होगा । नागों ने डरते डरते कहा— महाराज, आप ही ने हमें कुटिल और विषधर बनाया, हमारा क्या अपराध है? अब हम लोगों के रहने के लिये कोई अलग स्थान बतलाइए जहाँ हम लोग सुख से पडे रहें । ब्रह्मा ने उनके रहने के लिये पाताल, वितल और सुतल ये तीन स्थान या लोक बतला दिए । लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई मनसादेवी कद्रू की कन्या हैं। ये तपस्विनी स्त्रियों में श्रेष्ठ, कल्याणस्वरूपा और महातेजस्विनी हैं। इन्हीं का दूसरा नाम जरत्कारु है। इन्हीं के पति मुनिवर जरत्कारु थे, जो नारायण की कला से प्रकट हुए थे। विष्णु तुल्य तेजस्वी आस्तीक इन्हीं मनसा देवी के पुत्र हैं।

मनसा देवी


मनसा देवी
मनसा देवी को भगवान शिव की मानस पुत्री के रूप में पूजा जाता है। इनका प्रादुर्भाव मस्तक से हुआ है इस कारण इनका नाम मनसा पड़ा। इनके पति जगत्कारु तथा पुत्र आस्तिक जी हैं। इन्हें नागराज वासुकी की बहन के रूप में पूजा जाता है, प्रसिद्ध मंदिर एक शक्तिपीठ पर हरिद्वार में स्थापित है। ( मनसा देवी नागों की देवी हैं, उनका मुख्य मंदिर हरिद्वार में है जो शक्तिपीठ पर स्थापित है। नवरात्रि को यहाँ बहुत भीड़ लगती है तथा तीर्थ के साथ ही यह पर्यटन स्थल भी है जो मन में शांति का अनुभव कराने वाला है।) इन्हें शिव की मानस पुत्री माना जाता है परंतु कई पुरातन धार्मिक ग्रंथों में इनका जन्म कश्यप के मस्तक से हुआ हैं, ऐसा भी बताया गया है।[मनसा को शिव की मानसपुत्री मानते हैं तथा कुछ लोग इन्हें कश्यप पुत्री भी मानते हैं।] कुछ ग्रंथों में लिखा है कि वासुकि नाग द्वारा बहन की इच्छा करने पर शिव नें उन्हें इसी कन्या का भेंट दिया और वासुकि इस कन्या के तेज को न सह सका और नागलोक में जाकर पोषण के लिये तपस्वी हलाहल को दे दिया।[हलाहल पूर्व में दैत्य था जिसने शिव की तपस्या कर शिवांश द्वारा मृत्यु प्राप्ति का वर माँगा।] इसी मनसा नामक कन्या की रक्षा के लिये हलाहल नें प्राण त्यागा।

Friday, December 7, 2018

देवदारु


देवदारु
देवदार (वैज्ञानिक नाम:सेडरस डेओडारा, अंग्रेज़ी: डेओडार, उर्दु: ديودار देओदार; संस्कृत: देवदारु) एक सीधे तने वाला ऊँचा शंकुधारी पेड़ है, जिसके पत्ते लंबे और कुछ गोलाई लिये होते हैं। देवदार साधारणत: ढाई से पौने चार मीटर के घेरे वाले पेड़ है, जो वनों में बहुतायत से मिलते हैं, पर 14 मीटर के घेरे वाले तथा 75 से 80 मीटर तक ऊँचे पेड़ भी पाए जाए हैं। देवदार एक बहुत बड़ा लंबा और सीधा पेड़ है। देवदार का तना बहुत मोटा और पत्ते हल्के हरे रंग के मुलायम और लंबे होते हैं। लकड़ी पीले रंग की सघन, सुगंधित, हल्की, मजबूत और रालयुक्त होती है। राल के कारण कीड़े और फफूँद नहीं लगते और जल का भी प्रभाव नहीं पड़ता, लकड़ी उत्कृष्ट कोटि की इमारती होती है।

शिवाचतुर्थी व्रत


शिवाचतुर्थी
( भविष्यपुराण ) - शिवा, शान्ता और सुखा - ये ३ चतुर्थी होती हैं । इनमें भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीकी ' शिवा ' संज्ञा है । इसमें स्त्रान, दान, जप और उपवास करनेसे सौगुना फल होता है । स्त्रियाँ यदि इस दिन गुड़, घी, लवण और अपूपादिसे अपने सास - श्वशुर या माँ आदिको तृप्त करे तो उनके सौभाग्यकी वृद्धि होती है । ( माघ शुक्ल चतुर्थी शान्ता और भौमप्रयुक्त सुखा होती है । )

( भविष्यपुराण ) - शिवा, शान्ता और सुखा - ये ३ चतुर्थी होती हैं । इनमें भाद्रपद शुक्ल चतुर्थीकी ' शिवा ' संज्ञा है । इसमें स्त्रान, दान, जप और उपवास करनेसे सौगुना फल होता है । स्त्रियाँ यदि इस दिन गुड़, घी, लवण और अपूपादिसे अपने सास - श्वशुर या माँ आदिको तृप्त करे तो उनके सौभाग्यकी वृद्धि होती है । ( माघ शुक्ल चतुर्थी शान्ता और भौमप्रयुक्त सुखा होती है । )
इसे कलंक चतुर्थी और सिद्धिविनायक चतुर्थी भी कहा जाता है। देखा जाए तो अधिकांश मनुष्य किसी भी प्रकार का विघ्न आने से भयभीत हो उठते हैं। गणेश जी की पूजा होने से विघ्न समाप्त हो जाता है।

दूब (दुर्वा)


दूब (दुर्वा) 
सामान्य नाम: दूब घास
वैज्ञानिक नाम: साइनोडान डेक्टीलान(Cynodon dactylon)
Scientific classification
Kingdom: Plantae
Clade: Angiosperms
Clade: Monocots
Clade: Commelinids
Order: Poales
Family: Poaceae
Genus: Cynodon
Species: C. dactylon
Binomial name
Cynodon dactylon
(L.) Pers.
विवरण: हिंदी में इसे दूब, दुबडा, संस्कृत में दुर्वा, सहस्त्रवीर्य, अनंत, भार्गवी, शतपर्वा, शतवल्ली, मराठी में पाढरी दूर्वा, काली दूर्वा, गुजराती में धोलाध्रो, नीलाध्रो, अंग्रेजी में कोचग्रास, क्रिपिंग साइनोडन, बंगाली में नील दुर्वा, सादा दुर्वा आदि नामों से जाना जाता है। मारवाडी भाषा में इसे ध्रो कहा जाता हैँ। यह वर्ष भर पाया जाने वाला एक बहुवर्षीय पौधा है जो सभी प्रकार की भूमियों में सारे देश में समान रूप से पाया जाता है। इसके नए पौधे तनों, बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते है। वर्षाकाल में इसकी वृद्धि अधिक होती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फरवरी-मार्च में इसके पौधों पर फूल आते है। दूब का पौधा सभी फसलो में समान रूप से प्रतिस्पर्धा करता है परन्तु फैलकर बढने की प्रवृति के कारण इसकी मुख्य प्रतिस्पर्धा पोषक तत्वों के लिए होती है। कम तापक्रम पर इसकी वृद्धि अपेक्षाकृत कम होती है । इसमे प्रति पौधा २००० से ३००० अंकुरणशील बीज पैदा होते हैं। दूर्वा (दूब) घास मे 50 से भी अधिक औषधीय गुण होने के कारण आयुर्वेद में इसको महाऔषधि कहा गया है । इसमें फाइबर (Fiber), प्रोटीन (Protein), फास्फोरस (Phosphorus), पोटेशियम (Potassium), कैल्शियम (Calcium), कार्बोहाइड्रेट (Carbohydrate) इत्यादि प्रचुरता मात्रा मे पाए जाते है।

खेजड़ी या शमी


खेजड़ी या शमी
खेजड़ी या शमी एक वृक्ष है जो थार के मरुस्थल एवं अन्य स्थानों में पाया जाता है। यह वहां के लोगों के लिए बहुत उपयोगी है। इसके अन्य नामों में घफ़ (संयुक्त अरब अमीरात), खेजड़ी, जांट/जांटी, सांगरी (राजस्थान), जंड (पंजाबी), कांडी (सिंध), वण्णि (तमिल), शमी, सुमरी (गुजराती) आते हैं। इसे फेद कीकर, खेजडो, समडी, शाई, बाबली, बली, चेत्त आदि भी कहा जाता है। इसका व्यापारिक नाम कांडी है। यह वृक्ष विभिन्न देशों में पाया जाता है जहाँ इसके अलग अलग नाम हैं। अंग्रेजी में यह प्रोसोपिस सिनेरेरिया नाम से जाना जाता है। खेजड़ी का वृक्ष जेठ के महीने में भी हरा रहता है। ऐसी गर्मी में जब रेगिस्तान में जानवरों के लिए धूप से बचने का कोई सहारा नहीं होता तब यह पेड़ छाया देता है। जब पेड़ बड़े हो जाते हैं तो हर वर्ष नवंबर-दिसम्बर में इनकी छंगाई करते हैं छंगाई से पत्तियों को सुखाने के बाद के बाद झाड़ कर अलग करके भंडारण कर लेते हैं बाद में चारे के लिए उपयोग करते हैं। पश्चिमी राजस्थान के कुछ जिलों जैसे जोधपुर,बाड़मेर तथा जैसलमेर में पेड़ों की छंगाई न करके हाथ में हरा लूंग इकट्ठा करके हरी अवस्था में ही पशुओं को विशेषकर बकरियो को खिलाते हैं जिससे बकरियों के दुग्ध उत्पादन में काफी इजाफा होता है। इसकी विधि में लूंग लेने में सिर्फ पत्तियां व छोटी शाखाएँ साथ में टूटती हैं, जिससे सांगरी उत्पादन प्रभावित नहीं होता; जबकि छंगाई करने से अगली ऋतु में अर्थात मार्च-अप्रैल में उनकी पेड़ों पर सांगरी नहीं आती। यानी केवल लूंग उत्पादन से संतुष्ट होना पड़ता है । इसका फूल मींझर कहलाता है। इसका फल सांगरी कहलाता है, जिसकी सब्जी बनाई जाती है। यह फल सूखने पर खोखा कहलाता है जो सूखा मेवा है। इसकी लकड़ी मजबूत होती है जो किसान के लिए जलाने और फर्नीचर बनाने के काम आती है। इसकी जड़ से हल बनता है। अकाल के समय रेगिस्तान के आदमी और जानवरों का यही एक मात्र सहारा है। सन १८९९ में दुर्भिक्ष अकाल पड़ा था जिसको छपनिया अकाल कहते हैं, उस समय रेगिस्तान के लोग इस पेड़ के तनों के छिलके खाकर जिन्दा रहे थे। इस पेड़ के नीचे अनाज की पैदावार ज्यादा होती है। १९८३ में इसे राजस्थान राज्य का राज्य वृक्ष घोषित कर दिया था।

Thursday, December 6, 2018

कार्तिकेय या मुरुगन


कार्तिकेय या मुरुगन
कार्तिकेय या मुरुगन, एक लोकप्रिय हिन्दु देव हैं और इनके अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिल नाडु में की जाती है इसके अतिरिक्त विश्व में जहाँ कहीं भी तमिल निवासी/प्रवासी रहते हैं जैसे कि श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर आदि में भी यह पूजे जाते हैं। इनके छ: सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिल नाडु में स्थित हैं। तमिल इन्हें तमिल कडवुल यानि कि तमिलों के देवता कह कर संबोधित करते हैं। यह भारत के तमिलनाडु राज्य के रक्षक देव भी हैं। अरब में यजीदी जाति के लोग भी इन्हें पूजते हैं, ये उनके प्रमुख देवता हैं। उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेश उत्तर कुरु के क्षे‍त्र विशेष में ही इन्होंने स्कंद नाम से शासन किया था। इनके नाम पर ही स्कंद पुराण है।

तिल - Sesamum indicum

तिल Sesamum indicum
तिल (अंग्रेज़ी:Sesamum indicum) का वानस्पतिक नाम 'सेसामम इंडिकम' हैं। तिल पेडिलिएसिई कुल का पौधा है, जो दो से चार फुट तक ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ तीन से पाँच इंच लंबी दीर्घवत्‌ या भालाकार होती हैं तथा इनका निचला भाग तीन पालियों या खंडोवा होता है। इसके पुष्प का दलपुंज हलका गुलाबी या श्वेत, 3/4" से 1' तक लंबा, नलिकाकार तथा पाँच विदारों वाला होता है। इसके ऊपर के ओष्ठों के दो पिंडक छोटे होते हैं। तिल अथवा इसके लिये प्रयुक्त होने वाला अन्य शब्द जिंजेली क्रमश: संस्कृत तथा अरबी भाषा से प्राप्त हुए हैं। धार्मिक संस्कारों में इसके प्रयोग से ज्ञात होता है कि इसे अति प्राचीन काल से तिलहन के रूप में भारत में उगाया जाता था। तिल का उद्गम भारत या अफ्रीका माना जाता है। सभी गरम देश, जैसे भूमध्यसागर के तटवर्ती प्रदेश, एशिया माइनर, भारत, चीन, मंचूरिया तथा जापान में इसकी खेती होती है। भारत में तिल की पैदावार विश्व की लगभग एक तिहाई होती है। इसके लिये हल्की बुमट तथा दुमट मिट्टी अधिक उपयुक्त है। यह मुख्यत: वर्षा में और कई स्थानों में शरद ऋतु में भी बोया जाता है। दाने का रंग मुख्यत: श्वेत, भूरा तथा काला होता है। औषधि के रूप में काले तिल का उपयोग अच्छा माना जाता है। रेबड़ी बनाने के लिए तिल तथा चीनी का उपयोग किया जाता है। भारत में तिल की खेती अधिक मात्रा में की जाती है। तिल की खेती स्वतंत्र रूप में या रूई, अरहर, बाजरा तथा मूंगफली आदि किसी भी फसल के साथ मिश्रित रूप में की जाती है। तिल उत्पादन के क्षेत्र में भारत का प्रमुख स्थान है।

गोरोचन

गोरोचन
 गोरोचन का रस तिक्त होता है | यह गुण में रुक्ष है। गोरोचन का वीर्य उष्ण होता है। पचने पर गोरोचन का विपाक कटु होता है। गोरोचन पित्त सारक होता है एवं यह वात एवं कफ का शमन करने वाला होता है।
 गोरोचन का औषध प्रयोग
 गोरोचन बच्चों के रोगों में उपयोगी होता है। इसके अलावा शिरोरोग, रक्त की कमी, पीलिया, अपस्मार, उन्माद आदि में गोरोचन का प्रयोग किया जाता है।
 गोरोचन की सेवन मात्रा : 125 मिलीग्राम से 500 मिलीग्राम तक प्रयोग कर सकते हैं।
 घर में गोरोचन रखने के लाभ
 1. धन की कमी नहीं रहती।
 2. असफलता द्वार पर दस्तक नहीं देती।
 3. घर में पीड़ा नहीं आती।
 4. घर में सरस व मधुर वातावरण बना रहता है।
 5. संतानहीनता, दरिद्रता और क्लेश से छुटकारा मिलता है।

गुग्गुल या 'गुग्गल'

गुग्गुल या 'गुग्गल'
गुग्गुल या 'गुग्गल' एक वृक्ष है। इससे प्राप्त राल जैसे पदार्थ को भी 'गुग्गल' कहा जाता है। भारत में इस जाति के दो प्रकार के वृक्ष पाए जाते हैं। एक को कॉमिफ़ोरा मुकुल (Commiphora mukul) तथा दूसरे को कॉ. रॉक्सबर्घाई (C. roxburghii) कहते हैं। अफ्रीका में पाई जानेवाली प्रजाति कॉमिफ़ोरा अफ्रिकाना (C. africana) कहलाती है।
यह मूल रूप से एशिया व अफ्रीका का पौधा है। यह भारत के उष्णकटिबंघीय क्षेत्रों, बांग्लादेश, आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान और प्रशांत महासागर में पाया जाता है। भारत में यह म.प्र., राजस्थान, तमिलनाडु, आसाम, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ में पाया जाता है। मध्यप्रदेश में यह ग्वालियर और मुरैना जिलों में पाया जाता है। गुग्गुल राजस्थान में अधिक मात्रा में पाई जाती है यह पूरे भारत में पाई जाती है। वैसे आबू पर्वत पर पैदा होने वाला गुग्गुल अच्छा सबसे अच्छा माना जाता है। इसका पेड़ 120 सेंटीमीटर से लेकर 360 सेंटीमीटर तक ऊंचा होता है। गुग्गुल की शाखाओं पर कांटें लगे होते हैं। शाखाओं की टहनियों पर भूरे रंग का पतला छिलका भी होता है जो उतरता हुआ नज़र आता है। गुग्गुल की छाल हल्की हरी तथा पीलापन लिए हुए चमकीली और परतदार होती है। गुग्गुल के पत्ते नीम के पत्ते के समान छोटे-छोटे, चमकीले, चिकने व आपस में मिले हुए होते हैं। इसके फल बेर के समान लंबे, गोल, तीन धार वाले तथा लाल रंग के होते हैं। गुग्गुल के फूल लाल रंग के छोटे, पंचदल युक्त होते हैं। पेड़ से डालियों से जो गोंद निकलता है, उसे गुग्गुल कहते हैं। इसमें रोग को ठीक करने के लिए कई प्रकार के गुण पाये जाते हैं। जो गुग्गुल चिकना हो, स्वर्ण के समान रंग वाला हो, पकी जामुन के समान स्वरूप वाला हो और पीला हो वही गुग्गुल अधिक लाभकारी होता है।

Wednesday, December 5, 2018

श्रीवत्स


श्रीवत्स
श्रीवत्स चिह्न का हिन्दु, बोद्ध तथा जैन धर्मावलम्बियों में विशेष महत्त्व है। श्री + वत्स का अर्थ होता है -लक्ष्मी पुत्र ।
श्रीवत्स का उल्लेख हिन्दू पौराणिक ग्रंथ महाभारत में हुआ है। महाभारत शान्ति पर्व के अनुसार यह भगवान नारायण के वक्ष:स्थल में भगवान शंकर के त्रिशूल से बना चिह्न है। [महाभारत शान्ति पर्व 342.134]
भागवत और विष्णु पुराण के अनुसार यह अगूँठे के बराबर सफेद बालों का एक समूह है, जो भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल पर है और दक्षिणावर्त्त भौंरी के आकार का कहा गया है।
इसे भृगु ऋषि का पद चिह्न माना जाता है।[भागवत तथा विष्णु पुराण 10.89.9-12]

अशून्यशयनव्रत

अशून्यशयनव्रत
( भविष्यपुराण ) 

यह श्रावण कृष्ण द्वितीयासे मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया पर्यन्त किया जाता है । इसमें पूर्वाविद्धा तिथि ली जाती है । यदि दो दिन दो दिन पूर्वविद्धा हो या दोनों दिन न हो तो पराविद्धा लेनी चाहिये । इसमें शेष-शय्यापर लक्ष्मी सहित नारायण शयन करते हैं, इसी कारण इसका नाम "अशून्यशयन" है । यह प्रसिद्ध है कि देवशयनी से देवप्रबोधिनी तक भगवान शयन करते हैं । साथ ही यह भी प्रसिद्ध है कि इस अवधि में देवता सोते हैं और शास्त्र से यही सिद्ध होता है कि द्वादशी को भगवान्, त्रयोदशी के काम, चतुर्दशी को यक्ष, पूर्णिमा को शिव, प्रतिपदा को ब्रह्मा, द्वितीया को विश्वकर्मा और तृतीया को उमा का शयन होता है ।
व्रती को चाहिये कि श्रावण कृष्ण द्वितीया को प्रातःस्त्रानादि करके श्रीवत्स-चिह्नसे युक्त चार भुजाओं से भूषित शेषशय्या पर स्थित और लक्ष्मी सहित भगवान का गन्ध - पुष्पादि से पुजन करे ।
दिन भर मौन रहे । व्रत रखे और सायंकाल पुनः स्त्रान करके भगवान का शयनोत्सव मनावे । फिर चन्द्रोदय होने पर अर्घ्यापात्र में जल, फल, पुष्प और गन्धाक्षत रखकर ' गगनाङ्गणसंदीप क्षीराब्धिमथनोद्भव । भाभासितदिगाभोग रमानुज नमोऽस्तु ते ॥' ( पुराणान्तर ) - इस मन्त्र से अर्घ्य दे और भगवान को प्रणाम करके भोजन करे ।
इस प्रकार प्रत्येक कृष्ण द्वितीया को करके मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया को उस ॠतुमें होनेवाले ( आम, अमरुद और केले आदि ) मीठे फल सदाचारी ब्राह्मण को दक्षिणा-सहित दे । करोंदे, नीबू आदि खट्टे तथा इमली, कैरी, नारंगी, अनार आदि स्त्री-नाम के फल न दे ।
इस व्रत से व्रती का गृह-भंग नहीं होता - दाम्पत्य-सुख अखण्ड रहता है । यदि स्त्री करे तो वह सौभाग्यवती होती है ।


अशून्य शयन व्रत का हिन्दू धर्म में एक विशेष महत्त्व है। भविष्य पुराण के अनुसार अशून्य शयन व्रत (Ashunya shayan Vrat) श्रावण कृष्ण पक्ष के दूसरे दिन रखा जाता है। चातुर्मास के चार महीनों के दौरान हर माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को यह व्रत किया जाता है। फल द्वितीया या अशून्यशयन व्रत को श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि से प्रारम्भ करना चाहिये और चार महीने तक प्रत्येक द्वितीया तिथि को व्रत तथा पूजन करना चाहिये अर्थात् श्रावण मास कृष्ण द्वितीया तिथि से लेकर मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया तिथि तक पति-पत्नी को एक साथ यह व्रत करना चाहिये ।
 विष्णुधर्मोत्तर के पृष्ठ- 71, मत्स्य पुराण के पृष्ठ- 2 से 20 तक, पद्मपुराण के पृष्ठ-24, विष्णुपुराण के पृष्ठ- 1 से 19 आदि में अशून्य शयन व्रत का उल्लेख मिलता है। इसमे शेषशय्या पर शयन करते हुए लक्ष्मी सहित विष्णु का पूजन होने के कारण इसे अशून्य शयन कहा जाता है।
 अशून्य शयन द्वितीया का अर्थ है- बिस्तर में अकेले न सोना पड़े। जिस प्रकार स्त्रियां अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिये करवाचौथ का व्रत करती हैं, ठीक उसी तरह पुरूषों को अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिये यह व्रत करना चाहिए। क्योंकि जीवन में जितनी जरूरत एक स्त्री को पुरुष की होती है, उतनी ही जरूरत पुरुष को भी स्त्री की होती है।
 हेमाद्रि और निर्णयसिन्धु के अनुसार अशून्य शयन द्वितिया का यह व्रत पति-पत्नी के रिश्तों को बेहतर बनाने के लिये बेहद अहम है। यह व्रत रिश्तों की मजबूती को बरकरार रखने में मदद करता है। कहते हैं जो भी इस व्रत को करता है, उसके दाम्पत्य जीवन में कभी दूरी नहीं आती। साथ ही घर-परिवार में सुख-शांति तथा सौहार्द्र बना रहता है।
 इस व्रत में लक्ष्मी तथा श्री हरि, यानी विष्णु जी का पूजन करने का विधान है। वस्तुतः शास्त्रों के अनुसार चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु का शयनकाल होता है और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है। कहते हैं जो भी इस व्रत को करता है, उसके दाम्पत्य जीवन में कभी दूरी नहीं आती। साथ ही घर-परिवार में सुख-शांति तथा सौहार्द्र बना रहता है। अतः गृहस्थ पति को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। इस व्रत में किस प्रकार भगवान की प्रार्थना करनी चाहिए।
 लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा।
 शय्या ममाप्य शून्यास्तु तथात्र मधुसूदन।।
 अर्थात् हे वरद, जैसे आपकी शेषशय्या लक्ष्मी जी से कभी भी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी शय्या अपनी पत्नी से सूनी न हो, यानी मैं उससे कभी अलग ना रहूं, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए।
 आज के दिन इस व्रत में शाम के समय चन्द्रोदय होने पर अक्षत, दही और फलों से चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है और अर्घ्य देने के बाद व्रत का पारण किया जाता है। फिर अगले दिन, यानी तृतीया को, यानी कल के दिन किसी ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और उनका आशीर्वाद लेकर उन्हें कोई मीठा फल देना चाहिए। इस प्रकार व्रत आदि करने से आपके जीवनसाथी पर आने वाली सारी मुसीबतों से आपको छुटकारा मिलता है।

 इसकी कथा इस प्रकार है। कथा: एक समय राजा रुक्मांगद ने जन रक्षार्थ वन में भ्रमण करते-करते महर्षि वामदेवजी के आश्रम पर पहुंच महर्षि के चरणों में साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया। राजा ने कहा, ‘महात्मन! आपके युगल चरणारविंदों का दर्शन करके मैंने समस्त पुण्य कर्मों का फल प्राप्त कर लिया।’ वामदेव जी ने राजा का विधिवत सत्कार कर कुशल क्षेम पूछी। तब राजा रुक्मांगद ने कहा- ‘भगवन ! मेरे मन में बहुत दिनों से एक संशय है। मैं उसी के विषय में आपसे पूछता हूं, क्योंकि आप सब संदेहों का निवारण करने वाले ब्राह्मण शिरोमणि हैं। मुझे किस सत्कर्म के फल से त्रिभुवन सुंदर पत्नी प्राप्त हुई है, जो सदा मुझे अपनी दृष्टि से कामदेव से भी अधिक सुंदर देखती है। परम सुंदरी देवी संध्यावली जहां-जहां पैर रखती हैं, वहां-वहां पृथ्वी छिपी हुई निधि प्रकाशित कर देती है। वह सदा शरद्काल के चंद्रमा की प्रभा के समान सुशोभित होती है। विप्रवर ! बिना आग के भी वह षड्रस भोजन तैयार कर लेती है और यदि थोड़ी भी रसोई बनाती है तो उसमें करोड़ों मनुष्य भोजन कर लेते हैं। वह पतिव्रता, दानशीला तथा सभी प्राणियों को सुख देने वाली है। उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हुआ है, वह सदा मेरी आज्ञा के पालन में तत्पर रहता है। द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा लगता है, इस भूतल पर केवल मैं ही पुत्रवान हूं, जिसका पुत्र पिता का भक्त है और गुणों के संग्रह में पिता से भी बढ़ गया है। वह बड़ा ही वीर, पराक्रमी, साहसी, शत्रु राजाओं को परास्त करने वाला है। उसने सेनापति होकर छः माह तक युद्ध किया और शत्रुपक्ष के सैनिकों को जीतकर सबको अस्त्रहीन कामनाओं को प्राप्त किया।

 उपाय
 * भगवान लक्ष्मीनारायण के चित्र या मूर्ति पर पीपल के पत्तों की माला चढ़ाएं।
 * लक्ष्मी जी के मंदिर में सौंदर्य प्रसाधन चढ़ाएं।
 * सिक्के पर इत्र लगाकर लक्ष्मी मंदिर में चढ़ाएं।
 * लक्ष्मी मंदिर में चमेली का इत्र चढ़ाएं।
 * मीठी चुरी बनाकर पति-पत्नी मिलकर पक्षियों को डालें।

अरुन्धती


अरुन्धती
सन्ध्या ब्रह्मा की मानस पुत्री थी जो तपस्या के बल पर अगले जन्म में अरुन्धती के रूप में महर्षि वसिष्ठ की पत्‍‌नी बनी। वह तपस्या करने के लिये चन्द्रभाग पर्वत के बृहल्लोहित नामक सरोवर के पास सद्गुरु की खोज में घूम रही थी। सन्ध्या की जिज्ञासा देखकर महर्षि वसिष्ठ वहाँ प्रकट हुए और सन्ध्या से पूछा- कल्याणी! तुम इस घोर जंगल में कैसे विचर रही हो, तुम किसकी कन्या हो और क्या करना चाहती हो? सन्ध्या कहने लगी- भगवन्! मैं तपस्या करने के लिये इस सूने जंगल में आयी हूँ। अब तक मैं बहुत उद्विगन् हो रही थी कि कैसे तपस्या करूँ, मुझे तपस्या मार्ग मालूम नहीं है। परन्तु अब आपको देखकर मुझे बडी शान्ति मिली है। वसिष्ठ जी ने कहा- तुम एकमात्र परम ज्योतिस्वरूप, धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष के दाता भगवान विष्णु की आराधना करके ही अपना अभीष्ट प्राप्त कर सकती हो। सूर्यमण्डल में शंख-चक्र-गदाधारी चतुर्भुज वनमाली भगवान विष्णु का ध्यान करके ॐ नमो वासुदेवाय ॐ इस मन्त्र का जप करो और मौन रहकर तपस्या करो। पहले छ: दिन तक कुछ भी भोजन मत करना, केवल तीसरे दिन रात्रि में एवं छठे दिन रात्रि में कुछ पत्ते खाकर जल पी लेना। उसके पश्चात् तीन दिन तक निर्जल उपवास करना और फिर रात्रि में भी पानी मत पीना। भगवान तुम पर प्रसन्न होंगे और शीघ्र ही तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे। इस प्रकार उपदेश करके महर्षि वसिष्ठ अन्तर्धान हो गये और वह भी तपस्या की पद्धति जानकर बडे आनन्द के साथ भगवान की पूजा करने लगी। इस प्रकार बराबर चार युग तक उसकी तपस्या चलती रही।

शची (इन्द्राणी)


शची (इन्द्राणी)
इन्द्राणी देवताओं के राजा इन्द्र की पत्नी हैं। इन्द्राणी असुर पुलोमा की पुत्री थीं, जिनका वध इन्द्र के हाथों हुआ था। ऋग्वेद की देवियों में इन्द्राणी का स्थान प्रधान हैं। ये इन्द्र को शक्ति प्रदान करने वाली और स्वयं अनेक ऋचाओं की ऋषि है। शालीन पत्नी की यह मर्यादा और आदर्श हैं और गृह की सीमाओं में उसकी अधिष्ठात्री हैं। द्रौपदी इन्हीं के अंश से उत्पन्न हुई थीं और ये स्वयं प्रकृति की अन्यतम कला से जन्मी थीं। जयंत (शास्त्रानुसार इन्द्राणी वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया 'गौरी (अक्षय) तृतीया' के व्रत के पुण्य-प्रताप से जयंत नामक पुत्र की मां बनी। ( भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय २१) यह जयन्त वही है, जिसने कौवे के रुप में माता सीता के पैरों में अपनी चोंच मारी थी तथा भगवान् श्रीराम ने तृण से उसको एक आँख का बना दिया था) शची के ही पुत्र थे और पुत्री का नाम जयिनी था।। शची को 'इन्द्राणी' , 'ऐन्द्री', 'महेन्द्री', 'पुलोमजा', 'पौलोमी' आदि नामों से भी जाना जाता है। मेरुगिरि के शिखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था। उस पुरी में देवताओं द्वारा सेवित इन्द्र अपनी साध्वी पत्‍नी शची के साथ निवास करते थे।
अपने कार्य क्षेत्र में इन्द्राणी विजयिनी और सर्वस्वामिनी हैं और अपनी शक्ति की घोषणा वह ऋग्वेद के मंत्र में करती हैं- ऋग्वेद के एक अत्यन्त सुन्दर और 'शक्तिसूक्त' में वह कहती हैं कि "मैं असपत्नी हूँ, सपत्नियों का नाश करने वाली हूँ, उनकी नश्यमान शालीनता के लिए ग्रहण स्वरूप हूँ, उन सपत्नियों के लिए, जिन्होंने मुझे कभी ग्रसना चाहा था।" उसी सूक्त में वह कहती हैं कि "मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं और मेरी कन्या महती है"- 'मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो मम दुहिता विराट्।'

Tuesday, December 4, 2018

शतानीक

शतानीक
 1. वृद्ध जिसकी अवस्था सौ या अधिक वर्षों की हो।
 2. द्रौपदी के गर्भ से उत्पन्न नकुल का एक पुत्र, जिसकी अश्चथामा ने सोते समय हत्या कर दी थी।
 3. व्यास के एक शिष्य।
 4. जनमेजय के पुत्र का नाम।
 शिवपुराण में भी राजा शतानीक का वर्णन आता है।
 अर्जुन के पौत्र और परीक्षित के पुत्र जनमेजय थे। जनमेजय के बाद वंशक्रम में शतानीक, अश्वमेधदंत्त, अधिसीम कृष्ण और निचक्षु हुए।
 द्वितीय शतानीक है जो परंतप के नाम से भी विख्यात था। पुराणों में उसके पिता का नाम वसुदान, किंतु भास के अनुसार सहस्रानीक, था। उसने विदेह की एक राजकुमारी से विवाह किया था। उसने अंग के नरेश दधिवाहन की राजधानी चंपा पर आक्रमण किया था। स्पष्ट है कि शतानीक परंतप के समय में वत्स राज्य के प्रभाव और महत्व में उल्लेखनीय वृद्धि हुई थी। शतानीक का राज्यकाल 550 ई. पू. के लगभग रखा जा सकता है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के सोलह महाजनपदों की तालिका में वत्स या वंस का भी नाम आता है।
 इस राजवंश की सर्वोच्च उन्नति शतानीक के पुत्र उदयन के समय में हुई थी। कहा जाता है, उसका जन्म उसी दिन हुआ था जिस दिन गौतम बुद्ध का हुआ था। 

महर्षि सुमन्तु


महर्षि सुमन्तु
सुमन्तु महर्षि वेदव्यास के शिष्य थे। वेदव्यास ने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु मुनि को पढ़ाया था । अतः सुमन्तु महर्षि अथर्ववेद के शाखाप्रचारक तथा एक स्मृति या धर्मशास्त्र के प्रणेता थे ।

जैमिनि ऋषि का पुत्र सुमन्तु था और उसका पुत्र सुकर्मा हुआ | उन दोनों महामति पुत्र-पौत्रों ने सामवेद की एक-एक शाखाका अध्ययन किया || २ || तदनन्तर सुमन्तु के पुत्र सुकर्मा ने अपनी सामवेदसंहिता के एक सहस्त्र शाखाभेद किये और हे द्विजोत्तम ! उन्हें उसके कौसल्य हिरण्यनाभ तथा पौष्पिंची नामक दो महाव्रती शिष्यों ने ग्रहण किया | हिरण्यनाभ के पाँच सौ शिष्य थे जो उदीच्य सामग कहलाये || ३ – ४ ||
इसी प्रकार जिन अन्य द्विजोत्तमों ने इतनी ही संहिताएँ हिरण्यनाभ से और ग्रहण की उन्हें पंडितजन प्राच्य सामग कहते है || ५ || पौष्पिंचि के शिष्य लोकाक्षि, नौधमि, कक्षीवान और लांगलि थे | उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने अपनी-अपनी संहिताओं के विभाग करके उन्हें बहुत बढ़ा दिया || ६ || महामुनि कृति नामक हिरण्यनाभ के एक और शिष्य ने अपने शिष्यों को सामवेद की चौबीस संहिताएँ पढायी || ७ || फिर उन्होंने भी इस सामवेदका शाखाओं द्वारा खूब विस्तार किया | ..................
अथर्ववेद को सर्वप्रथम अमित तेजोमय सुमन्तु मुनि ने अपने शिष्य कबंध को पढाया था फिर कबंध ने उसके दो भाग कर उन्हें देवदर्श और पथ्य नामक अपने शिष्यों को दिया || ९ || हे द्विजसत्तम ! देवदर्श के शिष्य मेध, ब्रह्मबलि, शौल्कायनि और पिप्पल थे || १० || हे द्विज ! पथ्य के भी जाबालि, कुमुदादि और शौनक नामक तीन शिष्य थे, जिन्होंने संहिताओं का विभाग किया || ११ || शौनक ने भी अपनी संहिता के दो विभाग करके उनमें से एक वभ्रुको तथा दूसरी सैन्धव नामक अपने शिष्य को दी || १२ || सैन्धव से पढकर मुच्चिकेश ने अपनी संहिता के पहले दो और फिर तीन विभाग किये | नक्षत्रकल्प, वेद्कल्प, संहिताकल्प, आंगिरसकल्प और शान्तिकल्प – उनके रचे हुए ये पाँच विकल्प अथर्ववेद संहिताओं में सर्वश्रेष्ठ हैं || १३- १४ || (श्रीविष्णुपुराण, तृतीय अंश, अध्याय – छठा)
अथर्ववेद में सुमन्तु, जाजलि, श्लोकायनी, शौनक, पिप्पलाद और मुज्जकेश आदि शाखाप्रवर्तक ऋषि हैं | (अग्निपुराण, अध्याय १०४)
व्यास-शिष्य सुमन्तु ने अथर्ववेद की भी एक शाखा बनायी तथा उन्होंने पैप्पल आदि अपने सहस्त्रों शिष्यों को उसका अध्ययन कराया | (अग्निपुराण, अध्याय ५४)

जैमिनी महर्षि


जैमिनी महर्षि
आचार्य जैमिनी महर्षि कृष्णद्वैपायन व्यासदेव के शिष्य थे। सामवेद और महाभारत की शिक्षा जैमिनी ने वेदव्यास से ही पायी थीं। ये ही प्रसिद्ध पूर्व मीमांसा दर्शन के रचयिता हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'भारतसंहिता' की भी रचना की थी, जो 'जैमिनि भारत' के नाम से प्रसिद्ध है। आपने द्रोणपुत्रों से मार्कण्डेय पुराण सुना था। इनके पुत्र का नाम सुमन्तु और पौत्र का नाम सत्वान था। इन तीनों ने वेद की एक-एक संहिता बनायी है। हिरण्यनाभ, पैष्पंजि और अवन्त्य नाम के इन के तीन शिष्यों ने उन संहिताओं का अध्ययन किया था।
व्यास ने ब्रह्मसूत्र की, उपनिषदों के आधार पर, रचना की। इसी को "भिक्षुसूत्र" भी कहते हैं जिसका उल्लेख पाणिनि ने अष्टाध्यायी में किया है।
इन प्रसंगों से यह स्पष्ट हे कि जैमिनि वेदव्यास के समानकालिक ऋषि थे। वेदव्यास ने कौरवों और पांडवों को साक्षात् देखा था। (कुरूणां पाण्डवानांश्च भवान् प्रत्यक्षदर्शिवान् -महा आदि 60 18) अतएव ये महाभारत के युद्ध-काल में रहे होंगे। विंटरनिट्ज के अनुसार महाभारत की रचना ईसा से पूर्व चौथी सदी में हुई होगी, किंतु भारतीय विद्वानों के अनुसार 3000 वर्ष ईसा से पूर्व ही महाभारत का समय हो सकता है। अतएव वेदव्यास का भी समय इसी के अनुसार निश्चय करना होगा।
पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में जिस भिक्षुसूत्र का उल्लेख किया है उसके रचयिता भी यही वेदव्यास हैं जिन्हें बादरायण व्यास भी हम कहते हैं और इसीलिये यह बादरायण सूत्र भी कहलाता है। पाणिनि के काल के संबंध में अनेक मत होते हुए भी गोल्डस्टरक, वासुदेवशरण अग्रवाल आदि विद्वानों के अनुसार यह लगभग 6000 वर्ष ईसा से पूर्व रहे होंगे, ऐसा कहा जा सकता है।
सत्यव्रत समाश्रमी का कहना है कि जैमिनि निरुक्तकार यास्क के पूर्ववर्ती हैं। यास्क पाणिनि के पूर्ववर्ती हैं। सामाश्रमी ने यास्क को ईसा से पूर्व 19वीं सदी में माना है। ब्रह्मसूत्र में वेदव्यास ने जैमिनि का 11 बार उल्लेख किया है (1.3.38 : 1.2.31 : 1.3.31 : 1.4.18 : 3.2.40 : 3.4.2, 18, 40, 4.3.12 : 4.4.5, 11) आश्वलायन गृह्मसूत्र में भी जैमिनि का "आचार्य" नाम से उल्लेख किया गया है (3.18 (3) 1.1.5 : 5.2.19 : 6.1.8 : 10.8.44 : 11.1.64)। महाभारत का "अश्वमेधपर्व" तो जैमिनि के ही नाम से प्रसिद्ध है। इसी प्रकार जैमिनि ने अपने पूर्वमीमांसासूत्र में पाँच बार बादरायण के मत का, उनका नाम लेकर, उल्लेख किया है।
इस प्रकार वेदव्यास के साथ जैमिनि का घनिष्ठ संबंध रखना प्रमाणित होता है। अतएव ये दोनों एक ही काल में रहे होंगे, ऐसा सिद्धांत मानने में दोष नहीं मालूम होता। पाश्चात्य विद्वानों के अनुसार जैमिनि ईसा से आठ शतक पूर्व ही रहे होंगे, किंतु भारतीय विद्वानों के अनुसार ईसा से तीन हजार वर्ष पूर्व जैमिनि का समय कहने में कोई विशेष आपत्ति नहीं मालूम होती।
इनके जीवन चरित के विषय में भी कोई विशेष विवरण प्राप्त नहीं है। पंचतत्र में केवल इतना बतलाया गया है कि मीमांसा सूत्र के रचयिता जैमिनि को एक हाथी ने मार दिया था। भागवत पुराण में वर्णन मिलता है कि जैमिनि ने व्यास से सामवेद का अध्ययन किया था तथ अपने शिष्य सुमन्तु को सामवेद पढ़ाया था। जैमिनि ने अपने सूत्रों में जिन आठ आचार्यों के मतों का उल्लेख किया है, उनके नाम हैं- बादरायण, बादरि, कार्ष्णाजिनि, लावुकायन, कामुकायन, आत्रेय, आलेखर तथा आश्मरण्य।
संस्कृत में विभाग को “व्यास“ कहते हैं, अतः वेदों का व्यास करने के कारण कृष्णद्वैपायन “वेदव्यास” कहलाने लगे। महर्षि व्यास के पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु- यह चार शिष्य थे। महर्षि व्यास ने पैल को ऋग्वेद, वैशम्यापन को यजुर्वेद, जैमिनी को सामवेद और सुमन्तु को अथर्ववेद की शिक्षा दी।
११५ ऋषियों के नाम से उनके गौत्र भी प्रचलित हैं, में एक जैमिनी गौत्र भी है।
कृतियाँ - जैमिनि के नाम से निम्नलिखित ग्रंथ प्रसिद्ध हैं :
जैमिनीय सामवेदसंहिता

सामवेद की एक हजार शाखाएँ हुईं जिनमें केवल कौथुमी, जैमिनीय तथा राणायणीय, ये ही तीन शाखाएँ आज मिलती हैं। जैमिनीय शाखा कर्नाटक प्रांत में, कौथुमीय गुजरात तथा मिथिला में एवं राणायणीय महाराष्ट्र प्रदेश में प्रधान रूप से प्रचलित है। डब्ल्यू कैलेंड (W. Caland) ने 1907 में जैमिनिसंहिता का एक संस्करण निकाला था। इसे "तलवकार" संहिता भी कहा जाता है।

जैमिनीय ब्राह्मण
ब्राह्मण ग्रंथ वेद का ही अंग है। यह पंचविंश-ब्राह्मण से पूर्व का ग्रंथ है। यह संपूर्ण अप्राप्य है। कुछ अंशमात्र प्रकाशित हुए हैं। इसके दो स्वरूप हमारे देखने में आते हैं - "जैमिनीय आर्षेय ब्राह्मण" जिसे बर्नेल ने 1878 में तथा "जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण" जिसे 1921 में एचदृ एंटल ने प्रकाशित करवाया। आर्षेय ब्राह्मण का डच भाषा में भी अनुवाद हुआ है जिसे कैंलेंड ने छपवाया है। इस ब्राह्मणग्रंथ के नवम अध्याय को "केनोपनिषद्" कहते हैं। इसका दूसरा नाम "ब्राह्मणोपनिषद्" भी है।

जैमिनीय श्रौतसूत्र
यह सूत्रग्रंथ सामवेद से संबंद्ध है। यह 1906 में लाइडेन से खंडित रूप में प्रकाशित हुआ है। कुछ अंश का अनुवाद भी प्रकाशित है।

जैमिनीयगृह्यसूत्र
यह भी सामवेद का ग्रंथ है। कैंलेंड ने 1922 में पंजाब संस्कृत सिरीज, लाहौर से इसका सानुवाद संस्करण प्रकाशित किया था।

जैमिनीय अश्वमेधपर्व (महाभारत)
महाभारत में लिखा है कि वेदव्यास ने जैमिनि को महाभारत पढ़ाया। इन्होंने अन्य गुरुभाइयों की तरह अपनी एक अलग "संहिता" बनाई (महाभारत, आदिपर्व, 763। 89-90) जिसे व्यास ने मान्यता दी। यह पर्व 68 अध्यायों में पूर्ण है। इस पर्व में जैमिनि ने जनमेजय से युधिष्ठिर के अश्वमेधयज्ञ का तथा अन्य धार्मिक बातों का सविस्तार वर्णन किया है। किया जाता है कि वेदव्यास के मुख से महाभारत की कथाओं को सुनकर उनके सुमंत, जैमिनि, पैल तथा शुक इन चार शिष्यों ने अपनी महाभारत संहिता की रचना की। इनमें से जैमिनि का एकमात्र "अश्वमेघ पर्व" बच गया है और सभी लुप्त हो गए।

जैमिनीय पूर्वमीमांसा सूत्र
पूर्वमीमांसा का यह सूत्रग्रंथ है। इसे 12 अध्यायों में सूत्रकार ने समाप्त किया है। इसमें कर्म-मीमांसा के 12 विषयों पर विचार है जिनके नाम हैं - धर्म, कर्मभेद, शेषत्व, प्रयोज्य-प्रयोजक-भाव, क्रम, अधिकार, सामान्यातिदेश, विशेषातिदेश, अह, बाध-अभ्युच्चय, तंत्र तथा आवाप। इसलिये इस ग्रंथ को लोग "द्वादश लक्षणी" भी कहते हैं।
इस सूत्रग्रंथ में सूत्रों में पुनरुक्तियाँ बहुत हैं, जैसे "लिंगदर्शनाच्च" सूत्र 30 बार तथा "चान्यार्थदर्शनम्" 24 बार आए हैं। इसी प्रकार अन्य सूत्रों की भी पुनरुक्तियाँ हैं : इस ग्रंथ में निम्नलिखित आचार्यों के नाम हैं--बादरायण (5 बार), बादरि (5 बार), ऐतिशायन (3 बार); कार्ष्णाजिनि (2 बार), लावुकायन (1 बार), कामुकायन (2 बार), आत्रेय (3 बार), आलेखन (2 बार)। इसके अतिरिक्त जैमिनि ने स्वय पाँच बार अपना नाम भी मीमांसासूत्र में लिया है। इससे ये समझना कि दो जैमिनि हुए हैं, ठीक नहीं है। इस प्रकार अन्य ग्रंथों में भी उल्लेख मिलते हैं। यह प्राय: प्राचीन ग्रंथकारों की लेखशैली थी।

कुछ विद्वानों का कहना है कि पूर्व ओर उत्तरमीमांसा तथा संकर्षणकांड; ये सभी एक ही साथ लिखे गए। पूर्वमीमांसा 12 अध्यायों में तथा संकर्षणकांड 4 अध्यायों में जैंमिनि के नाम से तथा उत्तरमीमांसा (वेदांतसूत्र) 4 अध्यायों में बादरायण के नाम से प्रसिद्ध हुई। जब बादरायण तथा जैमिनि दोनों गुरु-शिष्य थे तब दोनों ने परस्पर मिलकर ही ये सभी लिखे हों तो कोई आश्चर्य नहीं।

मीमांसा सूत्र के प्रथम अध्याय का प्रथम पाद "तर्कपाद" नाम से प्रसिद्ध है। इसमें मीमांसा के अनुसार दार्शनिक विचार हैं। धर्म की जिज्ञासा से ग्रंथ आरंभ होता है। प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव तथा शब्द - ये छ: प्रमाण इन्होंने माने हैं। प्रमाण में स्वत:प्रामाण्य ये मानते हैं। धर्म के लिये एकमात्र वेद प्रमाण है। वेद को अपौरुषेय जैमिनि मानते हैं। शब्द और अर्थ में नित्यसंबंध ये मानते हैं। शरीरादि से भिन्न एक पदार्थ "आत्मा" इन्होंने स्वीकार किया है। इसके अतिरिक्त अपूर्व, स्वर्ग, मोक्ष भी जैमिनि ने माना है। ईश्वर को साक्षात् मानने की चर्चा इन्होंने नहीं की है। इन्हीं को लेकर अन्य दार्शनिक विचार भी हैं।

जैमिनि, जनमेजय के सर्पयज्ञ में "ब्रह्मा" बनाए गए थे (महाभारत, आदिपर्व 53.6)। युधिष्ठिर की सभा में ये विद्यमान थे (महाभारत, सभापर्व, 4.11) और शरशय्या पर पड़े हुए भीष्मपितामह को देखने गए थे (महाभारत, शांतिपूर्व 47.6)। पुराणों में लिखा है कि जैमिनि "वज्रवारक" थे (शब्द कल्पद्रुम, पं॰ 345 बंगला संस्करण)

जैमिनि (ज्यौतिषी)
इन्होने ज्योतिष शास्त्र पर सूत्र रूप में एक ग्रंथ लिखा है। यह आयुर्विचार में विशेषज्ञ गिने जाते थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के भूतपूर्व ज्यौतिषशास्त्राध्यापक रामयत्न ओझा ने इस ग्रंथ का प्रकाशन किया था। 'जैमिनीय सूत्र' नाम से यह ग्रंथ प्रसिद्ध है।

Monday, December 3, 2018

विहार पंचमी अथवा विवाह पंचमी


विहार पंचमी अथवा विवाह पंचमी
मार्गशीर्ष शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि विशेष माना जाता है। रामायण के अनुसार त्रेता युग में सीता-राम का विवाह इसी दिन हुआ माना जाता है। मिथिलाचंल और अयोध्या में यह तिथि 'विवाह पंचमी' के नाम से प्रसिद्ध है। विहार पंचमी अथवा विवाह पंचमी हिंदू धार्मिक मान्यता के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल पंचमी बांकेबिहारी के प्रकट होने की तिथि भी है। इस वर्ष २०१८ में यह १२ दिसम्बर २०१८ को मनायी जायेगी।

Sunday, December 2, 2018

ऊँटकटारा / ब्रह्मदंडी / उष्टकंटक

ऊँटकटारा / ब्रह्मदंडी / उष्टकंटक
 ऊँटकटेरा के क्षुप (झाड़ीनुमा पौधे) जंगलों में होते हैं इसकी टहनियां (डाल), फल और पत्ते सभी पर तेज कांटे होते हैं। ऊँटकटेरा वृक्ष की सभी टहनियों के ऊपर गोल फल होते हैं जो चारों तरफ करीब एक-एक इंच लंबे कांटों से भरा होता है। यह घरेलू जानवरों की बीमारी में विशेष रूप से प्रयोग की जाती है। इसकी शाखाएं जड़ से फूटती है । यह सूरजमुखी कुल का, सीधे तने वाला, काँटों से भरा हुआ, १-२ फुट की ऊँचाई वाला पौधा है। इसकी पत्तियां सत्यानाशी के पौधे जैसे ही फैली हुए और कांटेदार होती हैं। यह बहुशाखीय है । ऊँटकटारा के ढोढे होते हैं जिनपर कांटे होते हैं। इस पर नीले-बैंगनी रंग के छोटे-छोटे फूल गुच्छों में आते हैं। इसकी मूसला जड़ भूमि में बहुत अन्दर तक धंसी रहती हैं।
 आयुर्वेद चिकित्सा में जड़ की छाल का चूर्ण अधिकतर प्रयोग में लिया जाता है | इसके पीले रंग के डोडे लगते हैं, जिन पर कांटे होते हैं । इस वनस्पति को ऊँट बहुत-बहुत प्रेम से खाते हैं । यह पौधा मध्य भारत मालवा मारवाड़ संयुक्त प्रांत तथा दक्षिण में रेतीले प्रदेशों, बंजर खेतों मैदानों में पायी जाती है।
 रासायनिक संरचना - कई सक्रिय घटकों में से, एपिगेनिन, एपिगेनिन -7-ओ-ग्लूकोसाइड, इचिनाटिनिन, 5,7-डायहाइड्रोक्सी -8,4'-डायमेथॉक्सी-फ्लैवनोन -5-ओ-एल्फा-एल-हृनमोपाइरानोसील-7-ओ-बीटा-डी -र्बिनोपीरानोसिल- (1 → 4) -ओ-बीटा-डी-ग्लुकोपाइरानोसाइड है।