Thursday, December 6, 2018

कार्तिकेय या मुरुगन


कार्तिकेय या मुरुगन
कार्तिकेय या मुरुगन, एक लोकप्रिय हिन्दु देव हैं और इनके अधिकतर भक्त तमिल हिन्दू हैं। इनकी पूजा मुख्यत: भारत के दक्षिणी राज्यों और विशेषकर तमिल नाडु में की जाती है इसके अतिरिक्त विश्व में जहाँ कहीं भी तमिल निवासी/प्रवासी रहते हैं जैसे कि श्रीलंका, मलेशिया, सिंगापुर आदि में भी यह पूजे जाते हैं। इनके छ: सबसे प्रसिद्ध मंदिर तमिल नाडु में स्थित हैं। तमिल इन्हें तमिल कडवुल यानि कि तमिलों के देवता कह कर संबोधित करते हैं। यह भारत के तमिलनाडु राज्य के रक्षक देव भी हैं। अरब में यजीदी जाति के लोग भी इन्हें पूजते हैं, ये उनके प्रमुख देवता हैं। उत्तरी ध्रुव के निकटवर्ती प्रदेश उत्तर कुरु के क्षे‍त्र विशेष में ही इन्होंने स्कंद नाम से शासन किया था। इनके नाम पर ही स्कंद पुराण है।



कार्तिकेय जी भगवान शिव और भगवती पार्वती के पुत्र हैं तथा सदैव बालक रूप ही रहते हैं। परंतु उनके इस बालक स्वरूप का भी एक रहस्य है।
भगवान कार्तिकेय छ: बालकों के रूप में जन्मे थे तथा इनकी देखभाल कृतिका (सप्त ऋषि की पत्निया) ने की थी, इसीलिए उन्हें कार्तिकेय धातृ भी कहते हैं।
पहली कथा : जब पिता दक्ष के यज्ञ में भगवान शिव की पत्नी 'सती' कूदकर भस्म हो गईं, तब शिवजी विलाप करते हुए गहरी तपस्या में लीन हो गए। उनके ऐसा करने से सृष्टि शक्तिहीन हो जाती है। उमा या पार्वती के रूप में सती पहाड़ों के राजा हिमावन की पुत्री के रूप में जन्म लेती हैं। शिव तो पहसे ही मोह के बंधन से मुक्त होकर हिमालय पर तपस्या करने चले गए थे। ऐसे में पार्वती के लिए उनके मन में आकर्षण विकसित करना एक कठिन कार्य था। इस समस्या का अंत करने के लिए देवताओं ने कामदेव की सहायता लेने का निश्चय किया। कामदेव ने अपने बाण से शिव पर फूल फेंका, ताकि उनके मन में पार्वती के लिए प्रेम और कामेच्छा जैसी भावना विकसित हो सके। उस समय शिव ध्यानमग्न थे। कामदेव के बाण की वजह से उनके ध्यान में खलल हुई थी, जिसकी वजह से शिव अत्याधिक क्रोधित हो उठे। उन्होंने अपनी तीसरी आंख से कामदेव को भस्म कर दिया। लेकिन कामदेव की पत्नी रति की प्रार्थना पर उन्होंने कामदेव को शरीर तो दे दिया लेकिन रति के अलावा वह किसी अन्य को नजर नहीं आते थे।
स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव के दिये वरदान के कारण अधर्मी राक्षस तारकासुर अत्यंत शक्तिशाली हो चुका था। इस मौके का फायदा दैत्य उठाते हैं और धरती पर तारकासुर नामक दैत्य का चारों ओर आतंक फैल जाता है। देवताओं को पराजय का सामना करना पड़ता है। चारों तरफ हाहाकार मच जाता है तब सभी देवता ब्रह्माजी से प्रार्थना करते हैं। तब ब्रह्माजी कहते हैं कि वरदान के अनुसार केवल शिवपुत्र ही उसका वध कर सकता था। और इसी कारण वह तीनों लोकों में हाहाकार मचा रहा था। इसीलिए सारे देवता भगवान विष्णु के पास जा पहुँचे। भगवान विष्णु ने उन्हें सुझाव दिया की वे कैलाश जाकर भगवान शिव से पुत्र उत्पन्न करने की विनती करें। इंद्र और अन्य देव भगवान शिव के पास जाते हैं, तब भगवान शंकर 'पार्वती' के अपने प्रति अनुराग की परीक्षा लेते हैं और पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होते हैं और इस तरह शुभ घड़ी और शुभ मुहूर्त में शिवजी और पार्वती का विवाह हो जाता है।
इसके पश्चात् समस्त देवगण जब कैलाश पहुंचे तब उन्हें पता चला कि शिवजी और माता पार्वती तो विवाह के पश्चात से ही देवदारु वन में एकांतवास के लिए जा चुके हैं। विवश व निराश देवता जब देवदारु वन जा पहुंचे तब उन्हें पता चला की शिवजी और माता पार्वती वन में एक गुफा में निवास कर रहे हैं। देवताओं ने शिवजी से मदद की गुहार लगाई किंतु कोई लाभ नहीं हुआ, भोलेभंडारी तो कामपाश में बंधकर अपनी अर्धांगिनी के साथ सम्भोग करने में रत थे। उनको जागृत करने के लिए अग्नि देव ने उनकी कामक्रीड़ा में विघ्न उत्पन्न करने की ठान ली। अग्निदेव जब गुफा के द्वार तक पहुंचे तब उन्होने देखा की शिव शक्ति कामवासना में लीन होकर सहवास में तल्लीन थे, किंतु अग्निदेव के आने की आहट सुनकर वे दोनों सावधान हो गए। सम्भोग के समय परपुरुष को समीप पाकर देवी पार्वती ने लज्जा से अपना सुंदर मुख कमलपुष्प से ढक लिया। देवी का वह रूप लज्जा गौरी के नाम से प्रसिद्द हो गया। कामक्रीड़ा में मग्न शिव जी ने जब अग्निदेव को देखा तब उन्होने भी सम्भोग क्रीड़ा त्यागकर अग्निदेव के समक्ष आना पड़ा। लेकिन इतने में कामातुर शिवजी का अनजाने में ही वीर्यपात हो गया। अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे। किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था की अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ। इस कारण उन्होने उस अमोघ वीर्य को गंगादेवी को सौंप दिया। जब देवी गंगा उस दिव्य अंश को लेकर जाने लगी तब उसकी शक्ति से गंगा का पानी उबलने लगा। भयभीत गंगादेवी ने उस दिव्य अंश को शरवण वन में लाकर स्थापित कर दिया किंतु गंगाजल में बहते बहते वह दिव्य अंश छह भागों में विभाजित हो गया था। भगवान शिव के शरीर से उत्पन्न वीर्य के उन दिव्य अंशों से छह सुंदर व सुकोमल शिशुओं का जन्म हुआ। उस वन में विहार करती छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी। उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में नारद जी ने शिव पार्वती को बताया तब वे दोनों अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, व कृतिकालोक चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने छह पुत्रों को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी, और उन्होने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगा लिया की वे छह शिशु एक ही शिशु बन गए जिसके छह शीश थे। तत्पश्चात शिव पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। कार्तिकेय ने बड़ा होकर राक्षस तारकासुर का संहार किया। तारकासुर और सूरपद्म का विनाश करने के लिए देवताओं का नेतृत्व करते हुए कार्तिकेय जिन छ: स्थानों पर ठहरे थे वे स्थान तिरुत्तानिकाई, स्वामिमलई, तिरुवाविनानकुडि, पझामुदिरसोलई, तिरुप्पारमकुनरम और तिरुचेनदुर के नाम से प्रचलित हैं। ये सभी प्राचीन मंदिर संगम काल के कवियों द्वारा बहुत ही महिमामंडित किए गए थे।
दूसरी कथा : लेकिन एक दूसरी कथा के अनुसार कार्तिकेय का जन्म 6 अप्सराओं के 6 अलग-अलग गर्भों से हुआ था और फिर वे 6 अलग-अलग शरीर एक में ही मिल गए थे।
पुराणों के अनुसार षष्ठी तिथि को कार्तिकेय भगवान का जन्म हुआ था, इसलिए इस दिन स्कन्द यानि कार्तिकेय भगवान की पूजा का भी विशेष महत्व माना गया है।
स्कन्द का देवसेना के साथ विवाह उस समय इन सब से घिरे हुए अग्रिनन्‍दन कार्तिकेय देवताओं द्वारा अभिषिक्त हो भाँति-भाँति की क्रीडाएँ करते हुए बड़ी शोभा पा रहे थे। देवताओं ने सेनापति पद पर अभिषिक्त हुए कुमार महासेन को इस प्रकार देखो, मानो सूर्य देव अन्‍धकार का नाश करके उदित हुए हों। तदनन्‍तर सारी देवसेनाएँ सहस्‍त्रों की संख्‍या में सब दिशाओं से उनके पास आयीं और कहने लगीं- ‘आप ही हमारे पति हैं। समस्‍त भूतगणों से घिरे हुए भगवान स्‍कन्‍द ने उन देव सेनाओं को अपने समीप पाकर उन्‍हें सान्‍त्‍वना दी और स्‍वयं भी उनके द्वारा पूजित तथा प्रशंसित हुए। उस समय इन्‍द्र ने स्‍कन्‍द को सेनापति के पद पर अभिषिक्त करने के पश्चात उस कुमारी देवसेना का स्‍मरण किया, जिसका उन्‍होंने केशी के हाथ से उद्धार किया था। उन्‍होंने सोचा, स्‍वयं ब्रह्मा जी ने निश्चय ही कुमार कार्तिकेय को ही उसका पति नियत किया है। यह सोचकर वे देवसेना को वस्‍त्रा भुषणों से भूषित करके ले आये। फिर बलसंहारक इन्‍द्र ने स्‍कन्‍द से कहा- ‘सुर श्रेष्‍ठ तुम्‍हारे जन्‍म लेने के पहले से ही ब्रह्मा जी ने इस कन्‍या को तुम्‍हारी पत्नी नियत की है, अत: तुम वेद मन्‍त्रों के उच्चारण पूर्वक, इसका विधिवत पाणिग्रहण करो। अपने कमल की सी कान्ति वाले हाथ से इस देवी का दायां हाथ पकड़ो। इन्‍द्र के ऐसा कहने पर स्‍कन्‍द ने विधिपूर्वक देवसेना का पाणिग्रहण किया। उस समय मन्‍त्रवेत्ता बृहस्‍पति जी ने वेद मन्‍त्रों का जप और होम किया। इस प्रकार सब लोग यह जान गये कि देवसेना कुमार कार्तिकेय की पटरानी है। उसी को ब्राह्मण लोग षष्‍ठी, लक्ष्‍मी, आशा, सुख प्रदा, सिनीवाली, कुहू, सद्वृति तथा अपराजिता कहते हैं। जब देवसेना ने स्‍कन्‍द को अपने सनातन पति के रुप में प्राप्‍त कर लिया, तब लक्ष्मी देवी ने स्‍वयं मूर्तिमती होकर उनका आश्रय लिया। पच्चमी तिथि को स्‍कन्‍द देव श्री अर्थात शोभा से सेवित हुए, इसलिये उस तिथि को श्री पच्चमी कहते हैं और षष्‍ठी कृतार्थ हुए थे, इसलिये षष्‍ठी महातिथि मानी गयी है। (महाभारत वनपर्व के मार्कण्डेयसमास्यापर्व के अंतर्गत अध्याय 229 में स्कंद का देवसेना के साथ विवाह का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से स्कंद का देवसेना के साथ विवाह के वर्णन की कथा कही है।)
कार्तिकेय का जिस देवी से विवाह किया गया वह ब्रह्मा के मानस पुत्री थी और जिसका इंद्र ने पालन किया था इसलिए उन्हें इंद्र के पुत्री भी कहते है. जब देव और दैत्यों का युद्ध हो रहा था तब देव पराजित हो रहे थे. उस समय ब्रह्मा ने एक देवी को प्रकट किया और उस देवी ने स्वयं एक से अनेक होकर देवताओं की सेना में परिवर्तित हो गयी और दैत्यों के विरुद्ध युद्ध किया. इसलिए उस देवी का नाम देवसेना रखा गया था. वह देवी भगवती सृष्टि के छठे अंश से प्रकट हुई थी इसलिए उन्हें षष्ठी देवी भी कहा जाता है. जब तारकासुर को मारने के लिए देवताओं के सेनापति पद पर भगवान कार्तिकेय को नियुक्त किया गया था तब देवसेना ब्रह्माजी की आज्ञा से भगवान कार्तिकेय के पास आई और प्रणाम करके उनसे कहा ब्रह्मजी की आज्ञा से आप हमारे पति है. देवराज इंद्र ने भी अपनी पाली हुई इस कन्या का हाथ कार्तिकेय हाथ में यह कहकर दे दिया कि पूर्वकाल में जब इस कन्या का उद्भव हुआ तभी ब्रह्माजी ने इसका विवाह आप के साथ नियुक्त कर दिया था. भगवान कार्तिकेय ने इंद्र की बात मानकर देवसेना से विवाह कर दिया. उस समय शिव और पार्वती, भगवान विष्णु और माँ लक्ष्मी और ब्रह्माजी और सरस्वती माँ सबने उन दोनों को आशीर्वाद दिया. देवसेना ही वह देवी षष्ठी है जिसका पुत्र की प्राप्ति के लिए भारत के कुछ प्रदेशो में पूजन किया जाता है.
पुराणों के अनुसार भगवान कार्तिकेय की देवसेना के अलावा एक और पत्नी थी. उस देवी का नाम वल्ली है (जो स्थानीय आदिवासी सरदार की पुत्री थी). पुराणों के अनुसार भगवान कार्तिकेय यह दोनों पत्नी भक्तो को मनोवांछित फल देनेवाली और सृष्टि का कल्याण करने वाली है. अपने पूर्व जन्म में देवसेना और वल्ली दोनों बहने थी इन्होंने मुरुगन स्वामी को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तप किया था जिससे प्रसन्न होकर मुरगन स्वामी ने अगले जन्म में इनकी इच्छा पूरी करने का वरदान दिया था।

माता का शाप
एक बार शंकर भगवान ने पार्वती के साथ जुआ खेलने की अभिलाषा प्रकट की। खेल में भगवान शंकर अपना सब कुछ हार गए। हारने के बाद भोलेनाथ अपनी लीला को रचते हुए पत्तो के वस्त्र पहनकर गंगा के तट पर चले गए। कार्तिकेय जी को जब सारी बात पता चली, तो वह माता पार्वती से समस्त वस्तुएँ वापस लेने आए। इस बार खेल में पार्वती हार गईं तथा कार्तिकेय शंकर जी का सारा सामान लेकर वापस चले गए। अब इधर पार्वती भी चिंतित हो गईं कि सारा सामान भी गया तथा पति भी दूर हो गए। पार्वती जी ने अपनी व्यथा अपने प्रिय पुत्र गणेश को बताई तो मातृ भक्त गणोश जी स्वयं खेल खेलने शंकर भगवान के पास पहुंचे। गणेश जी जीत गए तथा लौटकर अपनी जीत का समाचार माता को सुनाया। इस पर पार्वती बोलीं कि उन्हें अपने पिता को साथ लेकर आना चाहिए था। गणेशफिर भोलेनाथ की खोज करने निकल पड़े। भोलेनाथ से उनकी भेंट हरिद्वार में हुई। उस समय भोलेनाथ भगवान विष्णु व कार्तिकेय के साथ भ्रमण कर रहे थे। पार्वती से नाराज़ भोलेनाथ ने लौटने से मना कर दिया। भोलेनाथ के भक्त रावण ने गणेश के वाहन मूषक को बिल्ली का रूप धारण करके डरा दिया। मूषक गणेश जी को छोड़कर भाग गए। इधर भगवान विष्णु ने भोलेनाथ की इच्छा से पासा का रूप धारण कर लिया। गणेश जी ने माता के उदास होने की बात भोलेनाथ को कह सुनाई। इस पर भोलेनाथ बोले कि हमने नया पासा बनवाया है, अगर तुम्हारी माता पुन: खेल खेलने को सहमत हों, तो मैं वापस चल सकता हूँ।
गणेश जी के आश्वासन पर भोलेनाथ वापस पार्वती के पास पहुंचे तथा खेल खेलने को कहा। इस पर पार्वती हंस पड़ी व बोलीं- ‘अभी पास क्या चीज़ है, जिससे खेल खेला जाए।’ यह सुनकर भोलेनाथ चुप हो गए। इस पर नारद ने अपनी वीणा आदि सामग्री उन्हें दी। इस खेल में भोलेनाथ हर बार जीतने लगे। एक दो पासे फैंकने के बाद गणेश जी समझ गए तथा उन्होंने भगवान विष्णु के पासा रूप धारण करने का रहस्य माता पार्वती को बता दिया। सारी बात सुनकर पार्वती जी को क्रोध आ गया। रावण ने माता को समझाने का प्रयास किया, पर उनका क्रोध शांत नहीं हुआ तथा क्रोधवश उन्होंने भोलेनाथ को शाप दे दिया कि गंगा की धारा का बोझ उनके सिर पर रहेगा। नारद को कभी एक स्थान पर न टिकने का अभिषाप मिला। भगवान विष्णु को शाप दिया कि यही रावण तुम्हारा शत्रु होगा तथा रावण को शाप दिया कि विष्णु ही तुम्हारा विनाश करेंगे। कार्तिकेय को भी माता पार्वती ने कभी जवान न होने का शाप दे दिया।
पार्वती का वरदान
इस पर सर्वजन चिंतित हो उठे। तब नारद जी ने अपनी विनोदपूर्ण बातों से माता का क्रोध शांत किया, तो माता ने उन्हें वरदान मांगने को कहा। नारद जी बोले कि आप सभी को वरदान दें, तभी मैं वरदान लूँगा। पार्वती जी सहमत हो गईं। तब शंकर ने कार्तिक शुक्ल के दिन जुए में विजयी रहने वाले को वर्ष भर विजयी बनाने का वरदान मांगा। भगवान विष्णु ने अपने प्रत्येक छोटे-बड़े कार्य में सफलता का वर मांगा, परंतु कार्तिकेय ने सदा बालक रहने का ही वर मांगा तथा कहा- ‘मुझे विषय वासना का संसर्ग न हो तथा सदा भगवत स्मरण में लीन रहूँ।’ अंत में नारद जी ने देवर्षि होने का वरदान मांगा। माता पार्वती ने रावण को समस्त वेदों की सुविस्तृत व्याख्या देते हुए सबके लिए तथास्तु कहा।
परिवार
पिता - भगवान शिव
माता - भगवती पार्वती , भगवती सती
भाई - गणेश (छोटे भाई)
बहन - अशोकसुन्दरी (छोटी बहन)
पत्नी - देवसेना (षष्ठी देवी, ब्रह्मा की मानस पुत्री या कुमारी)
वाहन - मोर (संस्कृत - शिखि)
बालपन में इनकी देखभाल कृतिका (सप्तर्षि की पत्नियाँ) ने की थी।

मुरुगन के प्रसिद्ध मन्दिर
निम्नलिखित छः आवास, जिसे 'आरुपदै विदु' के नाम से जाना जाता है, भारत के तमिलनाडु में भगवान मुरुगन के भक्तों के लिए बहुत ही मुख्य तीर्थ स्थानों में से हैं-
पलनी मुरुगन मन्दिर - कोयंबटूर से 100 कि.मी. पूर्वी-दक्षिण में स्थित।
स्वामीमलई मुरुगन मन्दिर - कुंभकोणम के पास।
तिरुत्तनी मुरुगन मन्दिर - चेन्नई से 84 कि.मी.।
पज्हमुदिर्चोलाई मुरुगन मन्दिर - मदुरई से 10 कि.मी. उत्तर में स्थित।
श्री सुब्रहमन्य स्वामी देवस्थानम, तिरुचेन्दुर - तूतुकुडी से 40 कि.मी. दक्षिण में स्थित।
तिरुप्परनकुंद्रम मुरुगन मन्दिर - मदुरई से 10 कि.मी. दक्षिण में स्थित।
'मरुदमलै मुरुगन मन्दिर' (कोयंबतूर का उपनगर) एक और प्रमुख तीर्थ स्थान है।
भारत के कर्णाटक में मंगलौर शहर के पास 'कुक्के सुब्रमण्या मन्दिर' भी बहुत प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है, जो भगवान 'मुरुगन' को समर्पित हैं। लेकिन यह भगवान मुरुगन के उन छः निवास स्थान का हिस्सा नहीं है, जो तमिलनाडु में स्थित हैं

पिहोवा तीर्थ नगरी को लेकर महाभारत एवं पुराणों में जहा पृथुदक तीर्थ का विस्तार से वर्णन किया गया है और कार्तिकेय के मंदिर को इस तीर्थ की महत्ता को जोड़ा है। स्वर्गीय पंडित गजानन की ओर से लिखित पृथुदक तीर्थ महात्म्य पुस्तक में उल्लेख किया गया है कि जब भगवान शंकर पुत्र कार्तिकेय को राजतिलक करने का विचार करने लगे, तब माता पार्वती छोटे पुत्र गणेश को राजतिलक करवाने के लिए हठ करने लगी। तभी ब्रह्मा, विष्णु व शंकर जी सहित सभी देवी देवता एकत्रित हुए और सभा में यह निर्णय लिया गया कि दोनो भाईयों में से समस्त पृथ्वी का चक्कर लगा कर जो पहले पहुंचेगा, वही राजतिलक का अधिकारी होगा। भगवान कार्तिकेय प्रिय वाहन मोर पर बैठकर पृथ्वी का चक्कर लगाने के लिए चल पड़े और जब गणेश जी अपने वाहन चूहे पर बैठकर चक्कर लगाने के लिए जाने लगे, तभी माता पार्वती गणेश जी को कहने लगी कि वत्स तुम यहीं पर इक्टठे हुए समस्त देवगणों की परिक्रमा कर डालो क्योकि त्रिलोकी नाथ यहीं विद्यमान है। माता पार्वती के ऐसा समझाने पर गणेश जी ने तीन चक्र लगा कर भगवान शंकर जी को प्रणाम किया और कहा कि हे प्रभु मैने संपूर्ण जगत की परिक्रमा कर ली है। भगवान शंकर जी विस्मित हुए और उन समेत सभी ने गणेश जी को राजतिलक कर दिया और शुभ अशुभ कार्यो में पूजा का अधिकार दे दिया। उधर मार्ग में नारद जी ने कार्तिकेय जी को सारा वृतांत कह डाला। कार्तिकेय जी अतिशीघ्र परिक्रमा पूरी करके सभा स्थल पर आ पहुंचे और माता पार्वती जी से सारा हाल जान कर बोले, हे माता आपने मेरे साथ छल किया है। बडा होने के नाते भी राजतिलक पर मेरा ही अधिकार था। तुम्हारे दूध से यह मेरी त्वचा व मांस बना हुआ है, मैं इसको अभी उतार देता हूं। अत्यन्त क्रोधित होकर कार्तिकेय जी ने अपनी त्वचा व मांस उतार कर माता के चरणों में रख दिया और समस्त नारी जाति को श्राप दिया कि मेरे इस स्वरूप के जो स्त्री दर्शन करेगी, वह सात जन्म तक विधवा रहेगी , तभी देवताओं ने उनके शारीरिक शांति के लिए तेल व सिन्दूर का अभिषेक कराया जिससे उनका क्रोध शांत हुआ और शंकर जी व अन्य देवताओं ने कार्तिकेय जी को समस्त देव सेना का सेनापति बना दिया। तब भगवान कार्तिकेय जी पृथुदक में सरस्वती तट पर पिंडी रूप में स्थित हो गए और कहा कि जो व्यक्ति मेरे शरीर पर तेल का अभिषेक करेगा, उसके मृत्यु के प्राप्त हो गए पितर आदि बैकुंठ में प्रतिष्ठित होकर मोक्ष के अधिकारी होगें और कर्म, क्रिया, पितर पिंड आदि कार्य सरस्वती पर करवाने के बाद उनकी मेरे द्वारा साक्षी होगी ।
उत्तरी भारत में कर्म क्रिया प्रणाली को बनाए रखने व मनुष्यों के कल्याणार्थ पिहोवा में कार्तिकेय जी का अति प्राचीन मंदिर है। मंदिर में दिन रात जो अखंड ज्योति जल रही है, वह भी भगवान कृष्ण जी ने युधिष्ठिर द्वारा तब प्रज्जावलित करवाई थी, जब महाराभारत युद्घ में मृत्यु का प्राप्त हुए उनके सगे संबंधी जिसके पृथुदक सरस्वती तट पर कर्म पिंडादि सम्पन्न करा कर भगवान कार्तिकेय पर तेल का अभिषेक कराया था। अब भी यह प्रथा जारी है तथा चैत्र चौदस पर लाखों तीर्थ यात्री कार्तिकेय पर तेल चढ़ाते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार भगवान कार्तिकेय षष्ठी तिथि और मंगल ग्रह के स्वामी हैं तथा दक्षिण दिशा में उनका निवास स्थान है। इसीलिए जिन जातकों की कुंडली में कर्क राशि अर्थात् नीच का मंगल होता है, उन्हें मंगल को मजबूत करने तथा मंगल के शुभ फल पाने के लिए इस दिन भगवान कार्तिकेय का व्रत करना चाहिए। क्योंकि स्कंद षष्ठी भगवान कार्तिकेय को प्रिय होने के आज जातकों को इस दिन व्रत अवश्य करना चाहिए। कार्तिकेय को चम्पा के फूल पसंद होने के कारण ही इस दिन को स्कंद षष्‍ठी के अलावा चंपा षष्ठी भी कहते हैं।
पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिकेय अपने माता-पिता और छोटे भाई श्रीगणेश से नाराज होकर कैलाश पर्वत छोड़कर मल्लिकार्जुन (शिव जी के ज्योतिर्लिंग) आ गए थे और कार्तिकेय ने स्कंद षष्ठी को ही दैत्य तारकासुर का वध किया था तथा इसी तिथि को कार्तिकेय देवताओं की सेना के सेनापति बने थे।
भगवान कार्तिकेय का वाहन मोर है। ज्ञात हो कि स्कंदपुराण कार्तिकेय को ही समर्पित है। स्कंदपुराण में ऋषि विश्वामित्र द्वारा रचित कार्तिकेय 108 नामों का भी उल्लेख हैं। इस दिन निम्न मंत्र से कार्तिकेय का पूजन करने का विधान है। खासकर दक्षिण भारत में इस दिन भगवान कार्तिकेय के मंदिर के दर्शन करना बहुत शुभ माना गया है। चम्पा षष्ठी का त्योहार दक्षिण भारत, कर्नाटक, महाराष्ट्र आदि में प्रमुखता से मनाया जाता है।
यह दिन भगवान शिव के अवतार जिसे खंडोबा के नाम से जाना जाता है, उन्हें समर्पित है। खंडोबा को ही मल्हारी मार्तण्ड भी कहा गया। होलकर राजवंश के कुल देवता मल्हारी मार्तण्ड की चंपा षष्ठी की रात्रि बैंगन छठ का आयोजन होता है। चौंसठ भैरवों में मार्तण्ड भैरव भी एक हैं। वैसे सूर्य को भी मार्तण्ड कहा गया है। जैसे बिहार में छठ पूजा, सूर्य पूजा का महत्व है, उसी तरह महाराष्ट्र में बैंगन छठ का महत्व है। महाराष्ट्र में जैजूरी खंडोबा का मुख्य स्थान है, जो होळ गांव के पास है। इंदौर के शासक इसी होळ गांव के होने से होलकर कहलाए और खंडोबा उनके कुल देवता है।
कहा जाता है कि इस दिन तेल का सेवन नहीं करना चाहिए तथा बाजरे की रोटी एवं बैंगन के भुर्ते को प्रसाद वितरित करने का प्रचलन है। महाराष्ट्र और सुदूर मालवा में बसे मराठी भाषियों में मल्हारी मार्तण्ड की नवरात्रि का आयोजन मार्गशीर्ष प्रतिपदा से मार्गशीर्ष शुद्ध षष्ठी तक 5 दिन के उपवास के उपरांत मल्हारी मार्तण्ड की 'षडरात्रि' 'बोल सदानंदाचा येळकोट येळकोट' के साथ संपन्न होती है। इसीलिए इस दिन भगवान कार्तिकेय और खंडोबा का पूजन विशेष रूप से करना चाहिए।
पूजन विधि :
* स्कंद षष्ठी के दिन व्रतधारी व्यक्तियों को दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके भगवान कार्तिकेय का पूजन करना चाहिए।
* पूजन में घी, दही, जल और पुष्प से अर्घ्य प्रदान करना चाहिए।
* रात्रि में भूमि पर शयन करना चाहिए।
भगवान कार्तिकेय की पूजा का मंत्र -
'देव सेनापते स्कंद कार्तिकेय भवोद्भव।
कुमार गुह गांगेय शक्तिहस्त नमोस्तु ते॥'
कार्तिकेत गायत्री मंत्र (Kartikeya Gayatri Mantra)
"ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महासैन्या धीमहि तन्नो स्कन्दा प्रचोदयात।"
मान्यतानुसार कोर्ट, जमीन, पैसे आदि के विवाद को निपटाने से पहले भगवान कार्तिकेय की आराधना की जाए तो उसमें सफलता प्राप्त होती है।
भगवान कार्तिकेय के मंत्र
अपने शत्रुओं के नाश के लिए इस मंत्र का जाप करना चाहिए-
ॐ शारवाना-भावाया नमः
ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा वल्लीईकल्याणा सुंदरा
देवसेना मनः काँता कार्तिकेया नमोऽस्तुते
ॐ सुब्रह्मण्याय नमः
किसी भी कार्य में सफलता प्राप्ति के लिए भगवान कार्तिकेय की इन मंत्रो द्वारा आराधना करना चाहिए:
"आरमुखा ओम मुरूगा
वेल वेल मुरूगा मुरूगा
वा वा मुरूगा मुरूगा
वादी वेल अज़्गा मुरूगा
अदियार एलाया मुरूगा
अज़्गा मुरूगा वरूवाई
वादी वेलुधने वरूवाई"
दक्षिण भारत में भगवान कार्तिकेय को प्रसन्न करने के लिए निम्न मंत्रों का जाप किया जाता है:
"हरे मुरूगा हरे मुरूगा शिवा कुमारा हरो हरा ।
हरे कंधा हारे कंधा हारे कंधा हरो हरा ।
हरे षण्मुखा हारे षण्मुखा हारे षणमुखा हरो हरा ।
हरे वेला हरे वेला हारे वेला हरो हरा ।
हरे मुरूगा हरे मुरूगा ॐ मुरूगा हरो हरा ।"
प्रमुख मंत्र
1. ॐ श्री स्कन्दाय नमः
2. ॐ शरवण भवाय नमः
3. ॐ श्री सुब्रमण्यम स्वामीने नमः
4. ॐ श्री स्कन्दाय नमः
5. ॐ श्री षष्ठी वल्ली युक्त कार्तिकेय स्वामीने नमः

कार्तिकेय प्रज्ञा विवर्धन स्तोत्र
योगीश्वरो महासेनः कार्तिकेयोऽग्निनंदनः ।
स्कंदः कुमारः सेनानीः स्वामी शंकरसंभवः ॥१॥
गांगेयस्ताम्रचूडश्च ब्रह्मचारी शिखिध्वजः ।
तारकारिरुमापुत्रः क्रौंचारिश्च षडाननः ॥२॥
शब्दब्रह्मसमुद्रश्च सिद्धः सारस्वतो गुहः ।
सनत्कुमारो भगवान् भोगमोक्षफलप्रदः ॥३॥
शरजन्मा गणाधीश पूर्वजो मुक्तिमार्गकृत् ।
सर्वागमप्रणेता च वांच्छितार्थप्रदर्शनः ॥४॥
अष्टाविंशतिनामानि मदीयानीति यः पठेत् ।
प्रत्यूषं श्रद्धया युक्तो मूको वाचस्पतिर्भवेत् ॥५॥
महामंत्रमयानीति मम नामानुकीर्तनम् ।
महाप्रज्ञामवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥६॥
इति श्रीरुद्रयामले प्रज्ञाविवर्धनाख्यं श्रीमत्कार्तिकेयस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

॥ श्रीकार्तिकेयाष्टकम् ॥

ॐ श्रीगणेशाय नमः ।
अगस्त्य उवाच-
नमोऽस्तु वृन्दारकवृन्दवन्द्यपादारविन्दाय सुधाकराय ।
षडाननायामितविक्रमाय गौरीहृदानन्दसमुद्भवाय ॥ १॥
नमोऽस्तु तुभ्यं प्रणतार्तिहन्त्रे कर्त्रे समस्तस्य मनोरथानाम् ।
दात्रे रथानां परतारकस्य हन्त्रे प्रचण्डासुरतारकस्य ॥ २॥
अमूर्तमूर्ताय सहस्रमूर्तये गुणाय गण्याय परात्पराय ।
अपारपाराय परापराय नमोऽस्तु तुभ्यं शिखिवाहनाय ॥ ३॥
नमोऽस्तु ते ब्रह्मविदां वराय दिगम्बरायाम्बरसंस्थिताय ।
हिरण्यवर्णाय हिरण्यबाहवे नमो हिरण्याय हिरण्यरेतसे ॥ ४॥
तपः स्वरूपाय तपोधनाय तपः फलानां प्रतिपादकाय ।
सदा कुमाराय हि मारमारिणे तृणीकृतैश्वर्यविरागिणे नमः ॥ ५॥
नमोऽस्तु तुभ्यं शरजन्मने विभो प्रभातसूर्यारुणदन्तपङ्क्तये ।
बालाय चाबालपराक्रमाय षाण्मातुरायालमनातुराय ॥ ६॥
मीढुष्टमायोत्तरमीढुषे नमो नमो गणानां पतये गणाय ।
नमोऽस्तु ते जन्मजरातिगाय नमो विशाखाय सुशक्तिपाणये ॥ ७॥
सर्वस्य नाथस्य कुमारकाय क्रौञ्चारये तारकमारकाय ।
स्वाहेय गाङ्गेय च कार्तिकेय शैवेय तुभ्यं सततं नमोऽस्तु ॥ ८॥
इति स्कान्दे काशीखण्डतः श्रीकार्तिकेयाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

3 comments: