Thursday, November 29, 2018

पार्वती-मंगल

॥ पार्वती-मंगल ॥

 जानकी मंगलमें जिस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामके साथ जगज्जननी जानकीके मंगलमय विवाहोत्सवका वर्णन है, उसी प्रकार पार्वती मंगलमें प्रात:स्मरणीय गोस्वामीजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है । लक्ष्मी नारायण, सीता राम एवं राधा कृष्ण अथवा रुक्मिणी कृष्णकी भांति ही गौरी शंकर भी हमारे परमाराध्य एवं परम वन्दनीय आदर्श दम्पति हैं । लक्ष्मी, सीता, राधा एवं रुक्मिणीकी भांति ही गिरिराजकिशोरी पार्वती भी अनादि कालसे हमारी पतिव्रताओंके लिये परमादर्श रही हैं; इसीलिये हिंदू कन्याएँ जबसे वे होश सँभालती हैं, तभीसे मनोऽभिलषित वस्की प्राप्तिके लिये गौरीपूजन किया करती हैं । जगज्जननी जानकी तथा रुक्मिणी भी स्वयंवरसे पूर्व गिरिजा पूजनके लिये महलसे बाहर जाती हैं तथा वृषभानुकिशोरी भी अन्य गोप कन्याओंके साथ नन्दकुमारको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये हेमन्त ऋतुमें बड़े सबेरे यमुना स्नान करके वहीं यमुना तटपर एक मासतक भगवती कात्यायनीकी बालुकामयी प्रतिमा बनाकर उनकी पूजा करती हैं ।
 जगदम्बा पार्वतीने भगवान् शंकर जैसे निरन्तर समाधिमें लीन रहनेवाले, परम उदासीन वीतराग शिरोमणिको कान्तरूपमें प्राप्त करनेके लिये कैसी कठोर साधना की, कैसे कैसे क्लेश सहे, किस प्रकार उनके आराध्यदेवने उनके प्रेमकी परीक्षा ली और अन्तमें कैसे उनकी अदम्य निष्ठाकी विजय हुई यह इतिहास एक प्रकाशस्तम्भकी भांति भारतीय बालिकाओंको पातिव्रत्यके कठिन मार्गपर अडिगरूपसे चलनेके लिये प्रबल प्रेरणा और उत्साह देता रहा है और देता रहेगा । परम पूज्य गोस्वामीजीने अपनी अमर लेखनीके द्वारा उनकी तपस्या एवं अनन्य निष्ठाका बड़ा ही हृदयग्राही एवं मनोरम चित्र खींचा है, जो पाश्चात्य शिक्षाके प्रभावसे पाश्चात्य आदर्शोंके पीछे पागल हुई हमारी नवशिक्षिता कुमारियोंके लिये एक मनन करने योग्य सामग्री उपस्थित करता है । रामचरितमानसकी भांति यहों भी शिव बरातके वर्णनमें गोस्वामीजीने हास्यरसका अत्यन्त मधुर पुट दिया है और अन्तमें विवाह एवं विदाईका बड़ा ही मार्मिक एवं रोचक वर्णन करके इस छोटे से काव्यका उपसंहार किया है ।

Wednesday, November 28, 2018

भैरव चालीसा एवं भैरव आरती




भैरव आरती
जय भैरव देवा, प्रभु जय भैंरव देवा।
जय काली और गौरा देवी कृत सेवा।।
तुम्हीं पाप उद्धारक दुःख सिन्धु तारक।
भक्तों के सुख कारक भीषण वपु धारक।।
वाहन श्वान विराजत कर त्रिशूल धारी।
महिमा अमिट तुम्हारी जय-जय भयकारी।।
तुम बिन देवा सेवा सफल नहीं होंवे।
चौमुख दीपक दर्शन दुख सगरे खोंवे।।
तेल चटकि दधि मिश्रित भाषावलि तेरी।
कृपा करिए भैरव करिए नहीं देरी।।
पाँव घुंघरू बाजत अरु डमरू डमकावत।।
बटुकनाथ बन बालक जन मन हर्षावत।।
बटुकनाथ जी की आरती जो कोई नर गावें।
कहें धरणीधर नर मनोवाञ्छित फल पावें।।

Tuesday, November 27, 2018

आचमन



आचमन
 आचमन क्या है इस विषय में शास्त्रों में इस प्रकार बतलाया गया है-
 आचमन की विधि यह है कि हाथ-पाँव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके बैठे। दाहिने हाथ को जानू अर्थात घुटने के भीतर रखकर दोनों चरण बराबर रखे तथा शिखा में ग्रन्थि लगाये और फिर उष्णता एवं फेन से रहित शीतल एवं निर्मल जल से आचमन करे। खड़े-खड़े, बात करते, इधर-उधर देखते हुए, शीघ्रता से और क्रोधयुक्त होकर, आचमन न करे।
 दाहिने हाथ में पाँच तीर्थ कहे गये हैं – (१) देवतीर्थ, (२) पितृतीर्थ, (३) ब्राह्मतीर्थ, (४) प्राजापत्यतीर्थ और (५) सौम्यतीर्थ। अब आप इनके लक्षणों को सुने – अँगूठे के मूल में ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्राजापत्यतीर्थ, अङ्गुष्ठ के बीच में पितृतीर्थ और हाथ के मध्य-भाग में सौम्यतीर्थ कहा जाता हैं, जो देवकर्म से प्रशस्त माना गया है।

Sunday, November 25, 2018

महर्षि च्यवन


च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'पुलोमा' था। ऋषि च्यवन को महान् ऋषियों की श्रेणी में रखा जाता है।
वंश-गोत्र:-  भृगु वंश
पिता :- भृगु
माता:-  पुलोमा

जन्म विवरण:- जब पुलोमा गर्भवती थी, तब पुलोमन राक्षस ने उन्हें जबरन अपने साथ ले जाना चाहा। पुलोमन से संघर्ष में पुलोमा का शिशु गर्भ से बाहर गिर गया और च्यवन का जन्म हुआ।
विवाह  सुकन्या तथा आरुषी से
संतान :- और्व
रचनाएँ :- 'च्यवनस्मृति'
विशेष च्यवन ने अश्विनीकुमारों को सौम पान का अधिकार दिलाने का वचन दिया था। वे एक यज्ञ का आयोजन करते हैं और इन्द्र द्वारा आपत्ति करने पर भी उसे अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग प्रदान करने के लिए विवश कर देते हैं।
अन्य जानकारी 'भास्करसंहिता' में च्यवन ने सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है, जो एक महत्वपूर्ण मंत्र है। अनेक महान् राजाओं ने इनके निर्णयों को अपने धर्म-कर्म में शामिल किया।

Saturday, November 24, 2018

अश्विनीकुमार

देवता विश्‍वकर्मा को त्वष्टा भी कहा जाता है। उनकी पुत्री का नाम संज्ञा था। संज्ञा को कहीं-कहीं प्रभा भी कहा गया है। विश्‍वकर्मा ने अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान सूर्य से कर दिया। विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नामक एक पुत्री को जन्म दिया। संज्ञा बड़े कोमल स्वभाव की थी, जबकि सूर्य प्रचंड स्वभाव के थे। ऐसे में बड़े कष्टों के साथ संज्ञा सूर्यदेव के तेज को सहन कर रही थी। जब यह सब असहनीय हो गया तो वह अपनी छाया को सूर्यदेव की सेवा में छोड़कर अपने पिता के घर लौट गई। बहुत दिनों बाद पिता विश्वकर्मा ने उसे अपने पति के घर लौटने को कहा, लेकिन वह वहां नहीं जाना चाहती थी। तब वह उत्तरकुरु नामक स्थान (उत्तरी ध्रुव के पास) पर घोड़ी का रूप बनाकर तपस्या करने लगी। इधर सूर्यदेव, संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते थे। एक दिन छाया ने किसी बात से क्रोधित होकर संज्ञा के पुत्र यम को शाप दे दिया। शाप से भयभीत होकर यम अपने पिता सूर्य के पास गए और माता द्वारा शाप देने की बात बताई।माता ने अपने पुत्र को शाप दे दिया, यह सुनकर सूर्य को छाया पर संदेह होने लगा। तब सूर्य ने छाया को बुलाकर उसकी सच्चाई जाननी चाही। छाया ने जब कुछ नहीं बताया और वह चुप रह गई, तब सूर्यदेव उसे शाप देने को तैयार हो गए। ऐसे में भयभीत छाया ने सब कुछ सच-सच बता दिया।

खैर (कत्था)

खैर (कत्था) 
 कत्था भारत में एक सुपरिचित वस्तु है, जो मुख्य रूप से पान में लगाकर खाने के काम आता है। कभी-कभी औषधि और रंग के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। कत्था 'खैर' नामक वृक्ष की भीतरी कठोर लकड़ी से निकाला जाता है। खैर के वृक्ष भारत भर में, विशेषत: सूखे क्षेत्रों में पाए जाते हैं। खैर का वृक्ष वनस्पति विज्ञान में, असली कैटिचू किस्म का कहा जाता है। यह पंजाब, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश में गढ़वाल और कुमाऊँ, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तरी कनारा और दक्षिण में गंजाम तक पाया जाता है। इसका पेड़ बहुत बड़ा होता है और प्राय; समस्त भारत में से पाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के खैर शहर मे ये अधिक मात्रा मे पाया जाता है। इसके हीर की लकड़ी भूरे रंग की होती हैं, घुनती नहीं और घर तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। बबूल की तरह इसमें भी एक प्रकार का गोंद निकलता है और बड़े काम का होता है।


पुनर्नवा

पुनर्नवा

पुनर्नवा या शोथहीन या गदहपूरना (वानस्पतिक नाम:Boerhaavia diffusa) एक आयुर्वेदिक औषधीय पौधा है। श्वेत पुनर्नवा का पौधा बहुवर्षायु और प्रसरणशील होता है। क्षुप 2 से 3 मीटर लंबे होते हैं। ये प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु में नए निकलते हैं व ग्रीष्म में सूख जाते हैं। इस क्षुप के काण्ड प्रायः गोलाई लिए कड़े, पतले व गोल होते हैं। पर्व संधि पर ये मोटे हो जाते हैं। शाखाएं अनेक लंबी, पतली तथा लालवर्ण की होती हैं। पत्ते छोटे व बड़े दोनों प्रकार के होते हैं। लंबाई 25 से 27 मिलीमीटर होती है। निचला तल श्वेताभ होता है व छूने पर चिकना प्रतीत होता है।
विभिन्न भाषाओं में नाम : संस्कृत- पुनर्नवा। हिन्दी- सफेद पुनर्नवा, विषखपरा, गदपूरना। मराठी- घेंटूली। राजस्थानी - साटा। गुजराती- साटोडी। बंगला-श्वेत पुनर्नवा, गदापुण्या। तेलुगू- गाल्जेरू। कन्नड़-मुच्चुकोनि। तमिल- मुकरत्तेकिरे, शरून्नै। फारसी- दब्ब अस्पत। इंग्लिश- स्प्रेडिंग हागवीड। लैटिन- ट्रायेंथिमा पोर्टयूलेकस्ट्रम।

Monday, November 19, 2018

तुलसी गीता

॥ तुलसीगीता ॥

॥ श्रीभगवानुवाच ॥
प्राग्दत्वार्घं ततोऽभ्यर्च्य गन्धपुष्पाक्षतादिना ।
स्तुत्वा भगवतीं तां च प्रणमेद्दण्डवद्भुवि ॥ १॥

तुलसीकवचम्

॥ तुलसीकवचम् ॥

कवचं तव वक्ष्यामि भवसङ्क्रमनाशनम् ।
यस्य जापेन सिद्ध्यन्ति सर्वार्था नातियत्नतः ॥ १॥

तुलसीकवचम्

॥ तुलसीकवचम् ॥

श्रीगणेशाय नमः ।
अस्य श्रीतुलसीकवचस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीमहादेव ऋषिः अनुष्टुप्छन्दः श्रीतुलसी देवता मम ईप्सितकामनासिद्ध्यर्थं जपे विनियोगः।।

श्रीतुलसी अष्टोत्तरशत नामावली

॥ श्रीतुलसी अष्टोत्तरशतनामावली ॥

तुलसी Basil

तुलसी का पौधा
तुलसी - (ऑसीमम सैक्टम) एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय पौधा है। यह झाड़ी के रूप में उगता है और १ से ३ फुट ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ बैंगनी आभा वाली हल्के रोएँ से ढकी होती हैं। पत्तियाँ १ से २ इंच लम्बी सुगंधित और अंडाकार या आयताकार होती हैं। पुष्प मंजरी अति कोमल एवं ८ इंच लम्बी और बहुरंगी छटाओं वाली होती है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं। नए पौधे मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में उगते है और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है। 

देवोत्थिनी एकादशी की शुभकामनाएं