Monday, November 19, 2018

तुलसी Basil

तुलसी का पौधा
तुलसी - (ऑसीमम सैक्टम) एक द्विबीजपत्री तथा शाकीय, औषधीय पौधा है। यह झाड़ी के रूप में उगता है और १ से ३ फुट ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ बैंगनी आभा वाली हल्के रोएँ से ढकी होती हैं। पत्तियाँ १ से २ इंच लम्बी सुगंधित और अंडाकार या आयताकार होती हैं। पुष्प मंजरी अति कोमल एवं ८ इंच लम्बी और बहुरंगी छटाओं वाली होती है, जिस पर बैंगनी और गुलाबी आभा वाले बहुत छोटे हृदयाकार पुष्प चक्रों में लगते हैं। बीज चपटे पीतवर्ण के छोटे काले चिह्नों से युक्त अंडाकार होते हैं। नए पौधे मुख्य रूप से वर्षा ऋतु में उगते है और शीतकाल में फूलते हैं। पौधा सामान्य रूप से दो-तीन वर्षों तक हरा बना रहता है। 

प्रजातियाँ
तुलसी की सामान्यतः निम्न प्रजातियाँ पाई जाती हैं:
१- ऑसीमम अमेरिकन (काली तुलसी) गम्भीरा या मामरी।
२- ऑसीमम वेसिलिकम (मरुआ तुलसी) मुन्जरिकी या मुरसा।
३- ऑसीमम वेसिलिकम मिनिमम।
४- आसीमम ग्रेटिसिकम (राम तुलसी / वन तुलसी / अरण्यतुलसी)।
५- ऑसीमम किलिमण्डचेरिकम (कर्पूर तुलसी)।
६- ऑसीमम सैक्टम
७- ऑसीमम विरिडी।
इनमें ऑसीमम सैक्टम को प्रधान या पवित्र तुलसी माना गया जाता है, इसकी भी दो प्रधान प्रजातियाँ हैं- श्री तुलसी जिसकी पत्तियाँ हरी होती हैं तथा कृष्णा तुलसी जिसकी पत्तियाँ निलाभ-कुछ बैंगनी रंग लिए होती हैं। श्री तुलसी के पत्र तथा शाखाएँ श्वेताभ होते हैं जबकि कृष्ण तुलसी के पत्रादि कृष्ण रंग के होते हैं। गुण, धर्म की दृष्टि से काली तुलसी को ही श्रेष्ठ माना गया है, परन्तु अधिकांश विद्वानों का मत है कि दोनों ही गुणों में समान हैं।
तुलसी में अनेक जैव सक्रिय रसायन पाए गए हैं, जिनमें ट्रैनिन, सैवोनिन, ग्लाइकोसाइड और एल्केलाइड्स प्रमुख हैं। अभी भी पूरी तरह से इनका विश्लेषण नहीं हो पाया है। प्रमुख सक्रिय तत्व हैं एक प्रकार का पीला उड़नशील तेल जिसकी मात्रा संगठन स्थान व समय के अनुसार बदलते रहते हैं। ०.१ से ०.३ प्रतिशत तक तेल पाया जाना सामान्य बात है। 'वैल्थ ऑफ इण्डिया' के अनुसार इस तेल में लगभग ७१ प्रतिशत यूजीनॉल, बीस प्रतिशत यूजीनॉल मिथाइल ईथर तथा तीन प्रतिशत कार्वाकोल होता है। श्री तुलसी में श्यामा की अपेक्षा कुछ अधिक तेल होता है तथा इस तेल का सापेक्षिक घनत्व भी कुछ अधिक होता है। तेल के अतिरिक्त पत्रों में लगभग ८३ मिलीग्राम प्रतिशत विटामिन सी एवं २.५ मिलीग्राम प्रतिशत कैरीटीन होता है। तुलसी बीजों में हरे पीले रंग का तेल लगभग १७.८ प्रतिशत की मात्रा में पाया जाता है। इसके घटक हैं कुछ सीटोस्टेरॉल, अनेकों वसा अम्ल मुख्यतः पामिटिक, स्टीयरिक, ओलिक, लिनोलक और लिनोलिक अम्ल। तेल के अलावा बीजों में श्लेष्मक प्रचुर मात्रा में होता है। इस म्युसिलेज के प्रमुख घटक हैं-पेन्टोस, हेक्जा यूरोनिक अम्ल और राख। राख लगभग ०.२ प्रतिशत होती है।

पौराणिक कथा के अनुसार शिवजी का एक चौथा पुत्र था जिसका नाम था जलंधर। जलंधर शिव का सबसे बड़ा दुश्मन बना। श्रीमद्मदेवी भागवत पुराण के अनुसार जलंधर असुर शिव का अंश था, लेकिन उसे इसका पता नहीं था। जलंधर शिव जी की कोपाग्नि से गंगा—समुद्र—संगम में उत्पन्न हुआ था । विशेष—पद्म पुराण में लिखा है कि यह जनमते ही इतने जोर से रोने लगा कि सब देवता व्याकुल हो गए । उनकी ओर से जब ब्रह्मा ने जाकर समुद्र से पूछा कि यह किसका लड़का है तब उसने उत्तर दिया कि यह मेरा पुत्र है, आप इसे ले जाइए । जब ब्रह्मा ने उसे अपनी गोद में लिया तब उसने उनकी दाढ़ी इतने जोर से खींची कि उनकी आँखों से आँसू निकल पड़ा । इसी लिये ब्रह्मा ने इसका नाम 'जलंधर' रखा ।
माना जाता है कि जलंधर में अपार शक्ति थी और उसकी शक्ति का कारण थी उसकी पत्नी वृंदा, जो कालनेमि की कन्या थी। उनका जन्म राक्षस कुल में हुआ था। राक्षस कुल में जन्म लेने के बावजूद भी वृंदा भगवान श्री विष्णु जी की परम भक्त थी और वह सदैव सच्चे मन से भगवान विष्णु की पूजा करती थी। वृंदा के पतिव्रत धर्म के कारण सभी देवी-देवता मिलकर भी जलंधर को पराजित नहीं कर पा रहे थे। जलंधर को इससे अपने शक्तिशाली होने का अभिमान हो गया और वह वृंदा के पतिव्रत धर्म की अवहेलना करके देवताओं के विरुद्ध कार्य कर उनकी स्त्रियों को सताने लगा।
जलंधर को मालूम था कि ब्रह्मांड में सबसे शक्तिशाली कोई है तो वे हैं देवों के देव महादेव। जलंधर ने खुद को सर्वशक्तिमान रूप में स्थापित करने के लिए क्रमश: पहले इंद्र को परास्त किया और त्रिलोधिपति बन गया। इसके बाद उसने विष्णु लोक पर आक्रमण किया।
जलंधर ने विष्णु को परास्त कर देवी लक्ष्मी को विष्णु से छीन लेने की योजना बनाई। इसके चलते उसने बैकुंठ पर आक्रमण कर दिया। लेकिन देवी लक्ष्मी ने जलंधर से कहा कि हम दोनों ही जल से उत्पन्न हुए हैं इसलिए हम भाई-बहन हैं। देवी लक्ष्मी की बातों से जलंधर प्रभावित हुआ और लक्ष्मी को बहन मानकर बैकुंठ से चला गया।
इसके बाद उसने कैलाश पर आक्रमण करने की योजना बनाई और अपने सभी असुरों को इकट्ठा किया और कैलाश जाकर देवी पार्वती को पत्नी बनाने के लिए प्रयास करने लगा। इससे देवी पार्वती क्रोधित हो गईं और तब महादेव को जलंधर से युद्घ करना पड़ा।
जलंधर जब युद्ध के लिए निकल रहे थे, तब वृंदा ने उनसे कहा कि मैं संकल्प करती हूँ कि जब तक आप युद्ध से विजयी होकर वापिस नही आते तब तक मैं आपके लिए पूजा करती रहूंगी।
जलन्धर के युद्ध में जाने के बाद वृंदा ने अपने संकल्प के अनुसार पूजा आरम्भ कर दी। वृंदा की पूजा के प्रभाव से देवता जालंधर से जीतने में असफल हो रहे थे। ऐसे में देवता भगवान् विष्णु के पास जा पहुँचे तथा उनसे प्रार्थना करने लगे कि किसी भी तरह वे देवताओं को युद्ध जिताने में सहायता करें।
देवताओं की प्रार्थना सुनकर विष्णु जी सोच में पड़ गए। क्योंकि वृंदा जो अपने पति के लिए पूजा कर रही थी, वह भगवान विष्णु की परम भक्त थी तथा दूसरी और देवताओं द्वारा की गयी सहायता की गुहार को भी विष्णु जी अनदेखा नही कर सकते थे।
बहुत विचारोपरांत विष्णु जी ने वृंदा के साथ छल करने का निर्णय ले ही लिया। विष्णु जी ने जलन्धर का रूप लिया तथा वृंदा के महल में जा पहुंचे। वृंदा ने जैसे ही जलन्धर को देखा, तो वह उनके चरण छूने के लिए पूजा से उठ गयी। पूजा से उठने के कारण वृंदा का संकल्प टूट गया। वृंदा के संकल्प टूटते ही देवताओं ने दानव जलंधर का सिर धड़ से अलग कर दिया।
वृंदा को जब विष्णु जी के छल का पता चला तो वह बहुत क्रोधित हुई तथा विष्णु जी को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया। शाप के प्रभाव से विष्णु जी पत्थर बन गए। इस बात से चिंतित होकर लक्ष्मी जी तथा सभी देवी देवता वृंदा के पास गए। उन्होंने मिलकर वृंदा से भगवान् विष्णु को श्राप से मुक्त करने के लिए निवेदन किया। अन्ततः वृंदा ने विष्णु जी को शाप मुक्त कर दिया और सती हो गयी। शाप से मुक्त हो कर विष्णु जी फिर अपने मूल स्वरुप में आ गए।
भारत के पंजाब प्रांत में वर्तमान जालंधर नगर जलंधर के नाम पर ही है। जालंधर में आज भी असुरराज जलंधर की पत्नी देवी वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है। मान्यता है कि यहां एक प्राचीन गुफा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी। माना जाता है कि प्राचीनकाल में इस नगर के आसपास 12 तालाब हुआ करते थे। नगर में जाने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता था।
एक अन्य कथा के अनुसार लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा नारायण के निकट निवास करती थीं। एक बार गंगा ने नारायण के प्रति अनेक कटाक्ष किये। नारायण तो बाहर चले गये किन्तु इससे सरस्वती रुष्ट हो गयी। सरस्वती को लगता था कि नारायण गंगा और लक्ष्मी से अधिक प्रेम करते हैं। लक्ष्मी ने दोनों का बीच-बचाव करने का प्रयत्न किया। सरस्वती ने लक्ष्मी को निर्विकार जड़वत् मौन देखा तो जड़ वृक्ष अथवा सरिता होने का शाप दिया। सरस्वती को गंगा की निर्लज्जता तथा लक्ष्मी के मौन रहने पर क्रोध था। उसने गंगा को पापी जगत का पाप समेटने वाली नदी बनने का शाप दिया। गंगा ने भी सरस्वती को मृत्युलोक में नदी बनकर जनसमुदाय का पाप प्राक्षालन करने का शाप दिया। तभी नारायण भी वापस आ पहुँचे। उन्होंने सरस्वती का आर्लिगन कर उसे शांत किया तथा कहा—“एक पुरुष अनेक नारियों के साथ निर्वाह नहीं कर सकता। परस्पर शाप के कारण तीनों को अंश रूप में वृक्ष अथवा सरिता बनकर मृत्युलोक में प्रकट होना पड़ेगा। लक्ष्मी! तुम एक अंश से पृथ्वी पर धर्म-ध्वज राजा के घर अयोनिसंभवा कन्या का रूप धारण करोगी, भाग्य-दोष से तुम्हें वृक्षत्व की प्राप्ति होगी। मेरे अंश से जन्मे असुरेंद्र शंखचूड़ से तुम्हारा पाणिग्रहण होगा। भारत में तुम ‘तुलसी’ नामक पौधे तथा पद्मावती नामक नदी के रूप में अवतरित होगी। किन्तु पुन: यहाँ आकर मेरी ही पत्नी रहोगी। गंगा, तुम सरस्वती के शाप से भारतवासियों का पाप नाश करने वाली नदी का रूप धारण करके अंश रूप से अवतरित होगी। तुम्हारे अवतरण के मूल में भागीरथ की तपस्या होगी, अत: तुम भागीरथी कहलाओगी। मेरे अंश से उत्पन्न राजा शांतनु तुम्हारे पति होंगे। अब तुम पूर्ण रूप से शिव के समीप जाओ। तुम उन्हीं की पत्नी होगी। सरस्वती, तुम भी पापनाशिनी सरिता के रूप में पृथ्वी पर अवतरित होगी। तुम्हारा पूर्ण रूप ब्रह्मा की पत्नी के रूप में रहेगा। तुम उन्हीं के पास जाओ।’’ उन तीनों ने अपने कृत्य पर क्षोभ प्रकट करते हुए शाप की अवधि जाननी चाही। कृष्ण ने कहा—“कलि के दस हज़ार वर्ष बीतने के उपरान्त ही तुम सब शाप-मुक्त हो सकोगी।’’ सरस्वती ब्रह्मा की प्रिया होने के कारण ब्राह्मी नाम से विख्यात हुई।
एक अन्य कथानुसार तुलसी की कथा का आरम्भ वृन्दा की कथा से होता है। वृन्दा जलन्धर असुर की पत्नी थी। विष्णु ने जालन्धर असुर का रूप धारण करके वृन्दा से समागम किया। ज्ञात होने पर पतिव्रता वृन्दा ने तप करके अपना शरीर त्यागने का निश्चय किया। तपः काल में स्वर्ग की अप्सराएं उसके पास आई और कहा कि तुम भी हमारे साथ स्वर्ग की अप्सरा बन जाओ। लेकिन वृन्दा ने स्वीकार नहीं किया और उसने अपनी वृत्तियों को अन्तर्मुखी करके अन्त में शरीर का त्याग कर दिया। उसके शरीर के भस्म होने के स्थान पर तीन देवियों ने अपने – अपने बीज बोए जिनसे तुलसी, धात्री व मालती वृक्ष उत्पन्न हुए। तुलसी ने विष्णु की पति रूप में प्राप्ति के लिए तप किया लेकिन तपः काल में ही शंखचूड असुर ने उस पर मोहित होकर उसे अपनी रानी बनने के लिए आमन्त्रित किया। तुलसी को तप करते हुए बहुत समय व्यतीत हो चुका था और परिणाम नहीं मिल रहा था, अतः उसने शंखचूड का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। कालांतर में शंखचूड का शिव से युद्ध हुआ जिसमें शंखचूड परास्त नहीं हुआ। तब विष्णु ने ब्राह्मण का रूप धारण करके शंखचूड का कवच मांग लिया जिसके पश्चात् शंखचूड मारा जा सका। इस बीच विष्णु  पतिव्रता तुलसी के समक्ष शंखचूड के वेश में प्रकट हुए और तुलसी से समागम किया। पता लगने पर तुलसी ने विष्णु को शिला बन जाने का शाप दिया। स्वयं तुलसी वृक्ष तथा गण्डकी नदी बनी।
एक और अन्य कथा के अनुसार तुलसी राधा की सखी थी, किंतु राधा ने इसे शाप दे दिया। श्रीमद देवी भागवत के अनुसार प्राचीन समय में एक राजा था धर्मध्वज और उसकी पत्नी माधवी, दोनों गंधमादन पर्वत पर रहते थे। माधवी हमेशा सुंदर उपवन में आनंद किया करती थी। ऐसे ही काफी समय बीत गया और उन्हें इस बात का बिलकुल भी ध्यान नहीं रहा। परंतु कुछ समय पश्चात धर्मध्वज के हृदय में ज्ञान का उदय हुआ और उन्होंने विलास से अलग होने की इच्छा की। दूसरी तरफ माधवी गर्भ से थी। कार्तिक पूर्णिमा के दिन माधवी के गर्भ से एक सुंदर कन्या का जन्म हुआ। इस कन्या की सुंदरता देख इसका नाम तुलसी रखा गया। अनुपम सौंदर्यवती तुलसी ने तप करके ब्रह्मा से वर मांग लिया कि मुझे पतिरूप में श्री कृष्ण प्राप्त हों। पर उसका विवाह शंखचूर्ण नामक राक्षस के साथ हो गया। शंखचूर्ण को वरदान प्राप्त था कि जब तक उसकी स्त्री का सतीत्व भंग नहीं होगा, वह मर नहीं सकता। जब शंखचूर्ण का उपद्रव बहुत बढ़ गया तो विष्णु ने शंखचूर्ण का रूप धारण करके तुलसी का सतीत्व भंग कर दिया। इससे रुष्ट होकर तुलसी ने विष्णु को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया। लेकिन विष्णु ने उसे वर दिया कि तुम्हारे केशों से तुलसी का पौधा उत्पन्न होगा और तुम मुझे लक्ष्मी के समान प्रिय होगी। कहते हैं, तभी से विष्णु के शालिग्राम रूप की तुलसी की पत्तियों से पूजा होने लगी।

तुलसी जी को बहुत पवित्र माना जाता है। कार्तिक मास में तुलसी जी के साथ शालिग्राम जी का विवाह किया जाता है।  एकादशी के दिन को तुलसी विवाह पर्व के रूप में मनाया जाता है।

तुलसी जी को जल चढ़ाते समय इस मंत्र का जाप करना चाहिए
महाप्रसाद जननी, सर्व सौभाग्यवर्धिनी
आधि व्याधि हरा नित्यं, तुलसी त्वं नमोस्तुते।।

इस मंत्र द्वारा तुलसी जी का ध्यान करना चाहिए 
देवी त्वं निर्मिता पूर्वमर्चितासि मुनीश्वरैः
नमो नमस्ते तुलसी पापं हर हरिप्रिये।।

तुलसी की पूजा करते समय इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए
तुलसी श्रीर्महालक्ष्मीर्विद्याविद्या यशस्विनी।
धर्म्या धर्मानना देवी देवीदेवमन: प्रिया।।
लभते सुतरां भक्तिमन्ते विष्णुपदं लभेत्।
तुलसी भूर्महालक्ष्मी: पद्मिनी श्रीर्हरप्रिया।।

धन-संपदा, वैभव, सुख, समृद्धि की प्राप्ति के लिए तुलसी नामाष्टक मंत्र का जाप करना चाहिए
॥ श्रीतुलसीनामाष्टकस्तोत्रम् अष्टनामावलिश्च ॥
वृन्दा वृन्दावनी विश्वपूजिता विश्वपावनी ।
पुष्पसारा नन्दिनी च तुलसी कृष्णजीवनी ॥
एतत् नाम अष्टकं चैव स्त्रोत्र नामार्थ संयुतम |
यः पठेत तां सम्पूज्य सोभवमेघ फलं लभेत ||

तुलसी के पत्ते तोड़ते समय इस मंत्र का जाप करना चाहिए
ॐ सुभद्राय नमः
ॐ सुप्रभाय नमः
मातस्तुलसि गोविन्द हृदयानन्द कारिणी
नारायणस्य पूजार्थं चिनोमि त्वां नमोस्तुते ।।

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