Sunday, November 25, 2018

महर्षि च्यवन


च्यवन ऋषि महान् भृगु ऋषि के पुत्र थे। इनकी माता का नाम 'पुलोमा' था। ऋषि च्यवन को महान् ऋषियों की श्रेणी में रखा जाता है।
वंश-गोत्र:-  भृगु वंश
पिता :- भृगु
माता:-  पुलोमा

जन्म विवरण:- जब पुलोमा गर्भवती थी, तब पुलोमन राक्षस ने उन्हें जबरन अपने साथ ले जाना चाहा। पुलोमन से संघर्ष में पुलोमा का शिशु गर्भ से बाहर गिर गया और च्यवन का जन्म हुआ।
विवाह  सुकन्या तथा आरुषी से
संतान :- और्व
रचनाएँ :- 'च्यवनस्मृति'
विशेष च्यवन ने अश्विनीकुमारों को सौम पान का अधिकार दिलाने का वचन दिया था। वे एक यज्ञ का आयोजन करते हैं और इन्द्र द्वारा आपत्ति करने पर भी उसे अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग प्रदान करने के लिए विवश कर देते हैं।
अन्य जानकारी 'भास्करसंहिता' में च्यवन ने सूर्य उपासना और दिव्य चिकित्सा से युक्त "जीवदान तंत्र" भी रचा है, जो एक महत्वपूर्ण मंत्र है। अनेक महान् राजाओं ने इनके निर्णयों को अपने धर्म-कर्म में शामिल किया।

पुराणों में महर्षि च्यवन का जन्म वृत्तांत कौतूहलों से भरा है। महर्षि भृगु और पुलोमा के पुत्र थे महर्षि च्यवन। पुलोमा के अनुपम सौंदर्य पर आसक्त हो उसके विवाह के पूर्व ही पुलोम नामक राक्षस उसका अपहरण करना चाहता था। वह कई बार प्रयत्न करके असफल रहा। पुलोमा के विवाह के बाद एक दिन भृगु महर्षि को आश्रम में न पाकर राक्षस पुलोम ने भृगु-पत्नी का अपहरण करना चाहा। उस समय अग्निदेव पुलोमा की रक्षा करने के उद्देश्य से आश्रम का पहरा दे रहे थे।
राक्षस पुलोम ने अग्निदेव के समीप जाकर पूछा कि महाशय यह बताइए कि क्या महर्षि भृगु और पुलोमा का विवाह वेद विधि और शास्त्रोक्त पद्धति से संपन्न हुआ है? अग्निदेव ने उत्तर दिया कि नहीं मैं कभी असत्य वचन नहीं कह सकता। इस पर राक्षस पुलोम सूअर का रूप धारण कर भृगु पत्नी को उठा ले गया। उस समय भृगु-पत्नी पुलोमा पूर्ण गर्भवती थी। मार्ग के मध्य में ही उसका प्रसव हुआ और शिशु पुलोमा के गर्भ से फिसलकर जमीन पर गिर पड़ा, इसलिए वह च्यवन नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शिशु के जन्म के समय जो तेज प्रकट हुआ, उसके आंच में राक्षस पुलोम जलकर भस्म हो गया। ऋषि-पत्नी पुलोमा विलाप करते हुए आश्रम को लौट आई। पुलोमा के नेत्रों से अविरल जो अश्रुधारा बह निकली, वह नदी के रूप में प्रकट हुई। उस नदी का नाम पड़ा वधूसर। आश्रम लौटने पर भृगु को पुलोमा के अपहरण का समाचार मिला। अग्निदेव की असावधानी पर रुष्ट हो भृगु ने उनको सर्व भक्षक बनने का शाप दे डाला।
बालक च्यवन बचपन से ही भक्ति भाव रखता था। जन्म से ही च्यवन विद्वान् और ज्ञानी थे। वह एक महान् ऋषि थे। इनका विवाह आरुषी से हुआ था, जिससे इन्हें 'और्व' नामक पुत्र प्राप्त हुआ। इनका अन्य विवाह राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से भी हुआ था। राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या से विवाह की कथा इस प्रकार है -
ऋषि च्यवन ने बहुत कठोर तपस्या की थी। वह लंबे समय तक निश्चल भाव से अन्न-जल भी त्यागकर तप करना आरंभ किया। कालांतर में उसके चारों तरफ वल्मीक यानी बाम्बियां निकल आईं। बाम्बियों के चतुर्दिक पौधे उग आए। लताओं से बाम्बियां ढक गईं। इन बाम्बियों के कोटरों में पक्षियों ने घोंसले बनाए। इस तरह बहुत समय गुज़र गया। एक दिन राजा शर्याति की पुत्रि सुकन्या अपनी सखियों के साथ टहलती हुई च्यवन मुनि के स्थान पर जा पहुँची। वहाँ पर मिट्टी के टीले में चमकते दो छिद्रों को देखकर चकित रह गई और कौतुहल वश देह को बांबी समझकर उन छिद्रों को कुरेदने लगती है। उसके इस कृत्य से ऋषि की आँखों से रक्त की धारा निकलने लगती है और ऋषि च्यवन अंधे हो जाते हैं। वे क्रोधित होकर शर्याति के परिवार तथा उनके अनुचरों को मल-मूत्र रुक जाने का शाप दे देते हैं। राजा शर्याति इस घटना से दु:खी होकर उनसे विनय निवेदन करते हैं। क्षमा-याचना स्वरूप वह अपनी पुत्री सुकन्या को उनके सुपुर्द कर देते हैं। इस प्रकार सुकन्या का विवाह च्यवन ऋषि से हो जाता है।
सुकन्या बहुत पतिव्रता थी। वह च्यवन ऋषि की सेवा में दिन-रात लगी रहती थी। एक दिन च्यवन ऋषि के आश्रम में देवों के वैद्य अश्विनीकुमार आते हैं। सुकन्या उचित प्रकार से उनका आदर-सत्कार एवं पूजन करती है। उसके इस आदर भाव व पतिव्रत से से प्रसन्न अश्विनीकुमार उसे आशीर्वाद प्रदान करते हैं। वह च्यवन ऋषि को उनका यौवन व आंखों की ज्योति प्रदान करते हैं। आँखों की ज्योति और नव यौवन पाकर च्यवन मुनि बहुत प्रसन्न होते हैं। वह अश्चिनीकुमारों को सौम पान का अधिकार दिलवाने का वचन देते हैं।

यह सुनकर अश्विनीकुमार प्रसन्न होकर और उन दोनों को आशीर्वाद देकर वहाँ से चले जाते हैं। शर्याति जब च्यवन ऋषि के युवा हो जाने के बारे में सुनते हैं तो बहुत प्रसन्न होते हैं व उनसे मिलने जाते हैं। ऋषि च्यवन राजा से कहकर एक यज्ञ का आयोजन कराते हैं। जहाँ वह यज्ञ का कुछ भाग अश्विनीकुमारों को प्रदान करते हैं। तब देवराज इन्द्र आपत्ति जताते हैं और अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग देने से मना करते हैं। परंतु च्यवन ऋषि, इन्द्र की बातों को अनसुना कर देते हैं। इससे क्रोधित होकर इन्द्र उन पर वज्र का प्रहार करने लगते हैं, किंतु ऋषि च्यवन अपने तपोबल से होम-कुंड से मधु नामक एक राक्षस की सृष्टि की । वह राक्षस इन्द्र को मारने के लिए दौड़ता है। इन्द्र भयभीत होकर अश्विनीकुमारों को यज्ञ का भाग देना स्वीकार कर लेते हैं और च्यवन ऋषि से क्षमा मांगते हैं। च्यवन ऋषि का क्रोध शांत होता है और वह उस राक्षस मधु को चार भागों में विभाजित किया और उन चार भागों को जुए, आखेट, मद्य और महिला में निक्षेपित किया तथा इन्द्र को कष्ट से मुक्ति प्रदान करते हैं।
च्यवन तथा मछुआरे
एक बार च्यवन ने महान् व्रत का आश्रय लेकर जल के भीतर रहना आरंभ कर दिया। वे गंगा-यमुना-संगम स्थल पर रहते थे। वहां उनकी जलचरों से प्रगाढ़ मैत्री हो गयी। एक बार मछवाहों ने मछलियाँ पकड़ने के लिए जाल डाला तो मत्स्यों सहित च्यवन ऋषि भी जाल में फंस गये। नदी से बाहर निकलने पर उन्हें देख समस्त मछवाहे उनसे क्षमा मांगने लगे। च्यवन ने कहा कि उनके प्राण मत्स्यों के साथ ही त्यक्त अथवा रक्षित रहेंगे। उस नगर के राजा को जब च्यवन की इस घटना का ज्ञान हुआ तो उसने भी मुनि से उचित सेवा पूछी। मुनि ने उससे मछलियों के साथ-साथ अपना मूल्य मछवारों को देने के लिए कहा। राजा ने पूरा राज्य देना भी स्वीकार कर लिया, किंतु च्यवन उसे अपने समकक्ष मूल्य नहीं मान रहे थे। तभी गौर के पेट से जन्मे गोताज मुनि उधर आ पहुंचे। उन्होंने राजा नहुष से कहा- "जिस प्रकार च्यवन अमूल्य हैं, उसी प्रकार गाय भी अमूल्य होती है, अत: आप उनके मूल्यस्वरूप एक गौर दे दीजिए।" राजा के ऐसा ही करने पर च्यवन प्रसन्न हो गये। मछवाहों ने क्षमा-याचना सहित वह गाय च्यवन मुनि को ही समर्पित कर दी तथा उनके आशीर्वाद से वे लोग मछलियों के साथ ही स्वर्ग सिधार गये। च्यवन तथा गोताज अपने-अपने आश्रम चले गये।

एक बार च्यवन मुनि को यह ज्ञात हुआ कि उनके वंश में कुशिक वंश की कन्या के संबंध से क्षत्रियत्व का दोष आनेवाला है। अत: उन्होंने कुशिक वंश को भस्म करने की ठान ली। वे राजा कुशिक के यहाँ अतिथि रूप में गये। राजा-रानी उनकी सेवा में लग गये। उन दोनों से यह कहकर कि वे उन्हें जगाये नहीं और उनके पैर दबाते रहें- वे सो गये। इक्कीस दिन तक वे लगातार एक करवट सोते रहे और राजा-रानी उनके पैर दबाते रहें फिर वे अंतर्धान हो गये। पुन: प्रकट हुए और इसी प्रकार वे दूसरी करवट सो गये। जागने पर भोजन में आग लगा दी। तदनंतर एक गाड़ी में दान, युद्ध इत्यादि की विपुल सामग्री भरकर उसमें राजा-रानी को जोतकर सवार हो गये तथा राजा-नारी पर चाबुक से प्रहार करते रहे। इस प्रकार के अनेक कृत्य होने पर भी जब राजा कुशिक तथा रानी क्रोध अथवा विकार से अभिभूत नहीं हुए तो च्यवन उनपर प्रसन्न हो गये। उन्हें गाड़ी से मुक्त कर अगले दिन आने के लिए कहा और राजमहल में भेज दिया तथा स्वयं गंगा के किनारे रूक गये। अगले दिन वहां पहुंचकर राजा-रानी ने एक अद्भुत स्वर्णमहल देखा जो चित्रविचित्र उपवन से घिरा था। उसके चारों ओर छोटे-छोटे महल तथा मानव-भाषा बोलनेवाले पक्षी थे। दिव्य पलंग पर च्यवन ऋषि लेटे थे। राजा-रानी मोह में पड़ गये। च्यवन ने उन दोनों को अपने आने का उद्देश्य बताकर कहा कि उनसे वे इतने प्रसन्न हुए हैं कि वे उनके विना मांगे ही इच्छित वर देंगे।

तदनुसार राजा कुशिक की तीसरी पीढ़ी से कौशिक वंश (ब्राह्मणों का एक वंश) प्रारंभ हो जायेगा। च्यवन ऋषि बोले-'चिरकाल से भृगुवंशी लोगों के यजमान क्षत्रिय रहे हैं किंतु भविष्य में उनमें फूट पड़ेगी। मेरे वंश में 'ऊर्व' नाम का तेजस्वी बालक त्रिलोक-संहार के लिए अग्नि की सृष्टि करेगा। ऊर्व के पुत्र ऋचीक होंगे। वे तुम्हारी पौत्री (गाधि की पुत्री) से विवाह करके ब्राह्मण-पुत्र को जन्म देंगे जिसका पुत्र क्षत्रिय होगा। ऋचीक की कृपा से तुम्हारे वंश गाधि को विश्वामित्र नामक ब्राह्मण-पुत्र की प्राप्ति होगी। जो कुछ दिव्य तुम यहाँ देख रहे हो, वह स्वर्ग की एक झलक मात्र है। इतना कहकर ऋषि ने उन दोनों से विदा ली।

महर्षि च्वयन आश्रम
जिला महेंद्रगढ़ के मुख्यालय नारनौल नगर से सात कि.मी. की दूरी पर बसा है गांव कुलताजपुर। इसी गांव के मध्य स्थित प्रसिद्ध ढोसी की पहाड़ी पर अवस्थित है महर्षि च्वयन आश्रम।
इस आश्रम को महर्षि च्यवन की तपोस्थली माना जाता है। मान्यता है कि इसी आश्रम में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध औषधि च्यवनप्राश का निर्माण किया था। आश्रम में सोमवती अमावस्या को विशाल मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें दूर-दराज से श्रद्धालु भाग लेते हैं। च्यवन ऋषि के आश्रम के संदर्भ में एक कथा प्रचलित है जिसका वर्णन धार्मिक ग्रंथों में भी मिलता है। महाभारत के मुताबिक ढोसी की पहाड़ी को आर्चिक पर्वत कहा जाता था। आर्चिक का अर्थ वेदों की ऋचाओं से समझा जाता है। कहा जाता है कि पुरातन काल में इस पर्वत पर अनेक संत-मुनि तपस्या करते थे और वेदों की ऋचाओं का पाठ करते थे इसलिए इस पर्वत को आर्चिक पर्वत कहा जाता था। कालांतर में इसे ढोसी कहा जाने लगा। एक अन्य कथा के अनुसार महर्षि च्यवन ने इसी ढोसी की पहाड़ी को अपनी तपोस्थली बनाया। महाभारत के अनुसार अज्ञातवास के दौरान पांडव ढोसी की पहाड़ी पर भी आए थे। इस पहाड़ी पर बड़े आकार के कुछ पदचिह्न भी हैं जो महाबली भीम के पदचिह्नों के रूप में प्रसिद्ध हैं।
च्यवन ऋषि ने भार्गव वंश की वृद्धि की। महाभारत में च्यवन ऋषि का वंश क्रम इस प्रकार है। च्यवन (पत्नी मनुकन्या आरुषी), और्व, और्व से ऋचीक, ऋचीक से जमदग्नि, जमदग्नि से परशुराम। भृगु ऋषि के पुत्रों में से च्यवन ऋषि एवं उसका परिवार पश्चिम हिन्दुस्तान में आनर्त देश से संबंधित था।

विशेषः- एक कथा के अनुसार अश्विनी कुमारों नें महर्षि च्यवन को जिस औषधि का सेवन करवाया, उसका नाम कालान्तर में "च्यवनप्राश" हुआ। "प्रातः स्मरण स्तोत्र" में, भगवान् शिव को प्रिय "व्योपहन स्तव" में भी महर्षि च्यवन का नाम आता है।

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 156 में अत्रि और च्यवन ऋषि के प्रभाव का वर्णन हुआ है।
श्रीमद्भागवतमहापुराण - नवम स्कन्ध - अध्याय ३ तथा भविष्य पुराण, ब्राह्म पर्व के 19वें अध्याय में महर्षि च्यवन के महत्त्व का वर्णन है।

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