Thursday, November 29, 2018

पार्वती-मंगल

॥ पार्वती-मंगल ॥

 जानकी मंगलमें जिस प्रकार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामके साथ जगज्जननी जानकीके मंगलमय विवाहोत्सवका वर्णन है, उसी प्रकार पार्वती मंगलमें प्रात:स्मरणीय गोस्वामीजीने देवाधिदेव भगवान् शंकरके द्वारा जगदम्बा पार्वतीके कल्याणमय पाणिग्रहणका काव्यमय एवं रसमय चित्रण किया है । लक्ष्मी नारायण, सीता राम एवं राधा कृष्ण अथवा रुक्मिणी कृष्णकी भांति ही गौरी शंकर भी हमारे परमाराध्य एवं परम वन्दनीय आदर्श दम्पति हैं । लक्ष्मी, सीता, राधा एवं रुक्मिणीकी भांति ही गिरिराजकिशोरी पार्वती भी अनादि कालसे हमारी पतिव्रताओंके लिये परमादर्श रही हैं; इसीलिये हिंदू कन्याएँ जबसे वे होश सँभालती हैं, तभीसे मनोऽभिलषित वस्की प्राप्तिके लिये गौरीपूजन किया करती हैं । जगज्जननी जानकी तथा रुक्मिणी भी स्वयंवरसे पूर्व गिरिजा पूजनके लिये महलसे बाहर जाती हैं तथा वृषभानुकिशोरी भी अन्य गोप कन्याओंके साथ नन्दकुमारको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये हेमन्त ऋतुमें बड़े सबेरे यमुना स्नान करके वहीं यमुना तटपर एक मासतक भगवती कात्यायनीकी बालुकामयी प्रतिमा बनाकर उनकी पूजा करती हैं ।
 जगदम्बा पार्वतीने भगवान् शंकर जैसे निरन्तर समाधिमें लीन रहनेवाले, परम उदासीन वीतराग शिरोमणिको कान्तरूपमें प्राप्त करनेके लिये कैसी कठोर साधना की, कैसे कैसे क्लेश सहे, किस प्रकार उनके आराध्यदेवने उनके प्रेमकी परीक्षा ली और अन्तमें कैसे उनकी अदम्य निष्ठाकी विजय हुई यह इतिहास एक प्रकाशस्तम्भकी भांति भारतीय बालिकाओंको पातिव्रत्यके कठिन मार्गपर अडिगरूपसे चलनेके लिये प्रबल प्रेरणा और उत्साह देता रहा है और देता रहेगा । परम पूज्य गोस्वामीजीने अपनी अमर लेखनीके द्वारा उनकी तपस्या एवं अनन्य निष्ठाका बड़ा ही हृदयग्राही एवं मनोरम चित्र खींचा है, जो पाश्चात्य शिक्षाके प्रभावसे पाश्चात्य आदर्शोंके पीछे पागल हुई हमारी नवशिक्षिता कुमारियोंके लिये एक मनन करने योग्य सामग्री उपस्थित करता है । रामचरितमानसकी भांति यहों भी शिव बरातके वर्णनमें गोस्वामीजीने हास्यरसका अत्यन्त मधुर पुट दिया है और अन्तमें विवाह एवं विदाईका बड़ा ही मार्मिक एवं रोचक वर्णन करके इस छोटे से काव्यका उपसंहार किया है ।

पार्वती मंगल गोस्वामी तुलसीदास की प्रसिद्ध रचनाओं में से एक है। इसका विषय शिव-पार्वती विवाह है। 'जानकी मंगल' की भाँति यह भी 'सोहर' और 'हरिगीतिका' छन्दों में रची गयी है। इसमें सोहर की 148 द्विपदियाँ तथा 16 हरिगीतिकाएँ हैं। इसकी भाषा भी 'जानकी मंगल की भाँति अवधी है।
 इसकी कथा 'रामचरित मानस' में आने वाले शिव विवाह की कथा से कुछ भिन्न है और संक्षेप में इस प्रकार है-
 हिमवान की स्त्री मैना थी। जगज्जननी भवानी ने उनकी कन्या के रूप में जन्म लिया। वे सयानी हुई। दम्पत्ति को इनके विवाह की चिंता हुई। इन्हीं दिनों नारद इनके यहाँ आये। जब दम्पति ने अपनी कन्या के उपयुक्त वर के बारे में उनसे प्रश्न किया, नारद ने कहा - 'इसे बावला वर प्राप्त होगा, यद्यपि वह देवताओं द्वारा वंदित होगा।'
 यह सुनकर दम्पति को चिंता हुई। नारद ने इस दोष को दूर करने के लिए गिरिजा द्वारा शिव की उपासना का उपदेश दिया। अत: गिरिजा शिव की उपासना में लग गयीं। जब गिरिजा के यौवन और सौन्दर्य का कोई प्रभाव शिव पर नहीं पड़ा, देवताओं ने कामदेव को उन्हें विचलित करने के लिए प्रेरित किया किंतु कामदेव को उन्होंने भस्म कर दिया। फिर भी गिरिजा ने अपनी साधना न छोड़ी। कन्द-मूल-फल छोड़कर वे बेल के पत्ते खाने लगीं और फिर उहोंने उसको भी छोड़ दिया। तब उनके प्रेम की परीक्षा के लिए शिव ने बटु का वेष धारण किया और वे गिरिजा के पास गये। तपस्या का कारण पूछने पर गिरिजा की सखी ने बताया कि वह शिव को वर के रूप में प्राप्त करना चाहती हैं। यह सुनकर बटु ने शिव के सम्बन्ध में कहा-
 'वे भिक्षा मांगकर खाते-पीते हैं, मसान में वे सोते हैं, पिशाच-पिशाचिनें उनके अनुचर हैं- आदि। ऐसे वर से उसे क्या सुख मिलेगा?' 
 किंतु गिरिजा अपने विचारों में अविचल रहीं। यह देखकर स्वयं शिव साक्षात प्रकट हुए और उहोंने गिरिजा को कृतार्थ किया। इसके अनंतर शिव ने सप्तर्षियों को हिमवान के घर विवाह की तिथि आदि निश्चित करने के लिए भेजा और हिमवान से लगन कर सप्तर्षि शिव के पास गये। विवाह के दिन शिव की बारात हिमवान के घर गयी। बावले वर के साथ भूत-प्रेतादि की वह बारात देखकर नगर में कोलाहल मच गया। मैना ने जब सुना तो वह बड़ी दु:खी हुई और हिमवान के समझाने - बुझाने पर किसी प्रकार शांत हुई। यह लीला कर लेने के बाद शिव अपने सुन्दर और भव्य रूप में परिवर्तित हो गये और गिरिजा के साथ धूम-धाम से उनका विवाह हुआ।
 रामचरित मानस में
 'मानस' में शिव के लिए गिरिजा की तपस्या तथा शिव का एकाकीपन देखकर राम ने शिव से गिरिजा को अंगीकार करने के लिए कहा है, जिसे उन्होंने स्वीकार किया है। तदंतर शिव ने सप्तर्षियों को गिरिजा की प्रेम-परीक्षा के लिए भेजा है। 'पार्वती मंगल' में राम बीच में नहीं पड़ते और गिरिजा की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव स्वयं बटु रूप में जाकर पार्वती की परीक्षा लेते हैं। 'मानस' में जो संवाद सप्तर्षि और गिरिजा के बीच में होता है, वह 'पार्वती मंगल' में बटु और उनके बीच होता है। 'मानस' में कामदहन इस प्रेम-परीक्षा के बाद होता है, जो 'पार्वती मंगल' में पहले ही हुआ रहता है। इसीलिए इसके बाद 'मानस' में विष्णु आदि को मिल कर शिव से अनुरोध करना पड़ता है कि वे पार्वती को अर्द्धांगिनी रूप में अंगीकार करे, जो 'पार्वती मंगल' में नहीं है। तदनन्तर 'मानस' में ब्रह्मा ने सप्तर्षि को हिमवान के घर लग्न-पत्रिका प्राप्त करने के लिए भेजा है, जिसके लिए 'पार्वती मंगल' में शिव ही उन्हें भेजते हैं। शेष कथा दोनों रचनाओं में प्राय: एक-सी है।
 दोनों रचनाओं में अंतर 
 प्रश्न यह है कि इस अंतर का कारण क्या है?'मानस' की कथा शिव-पुराण का अनुसरण करती है और 'पार्वती मंगल' की कथा 'कुमार-सम्भव' का। ऐसा ज्ञात होता है कि किसी समय तुलसीदास ने शिव-विवाह के विषय का भी उसी प्रकार का एक स्त्री-लोकोपयोगी खण्डकाव्य रचना चाहा, जिस प्रकार उन्होंने राम-विवाह का 'जानकी मंगल' रचा था। इस समय 'शिव-पुराण' की तुलना में उन्हें 'कुमार सम्भव' का आधार ग्रहण करना अधिक जंचा और इसीलिए उन्होंने ऐसा किया।
 ज्योतिषीय उपचारः-
 मङगल दोष के कारण अथवा अन्य किसी ग्रह के कारण विवाह में विलम्ब हो रहा हो अथवा गृह-क्लेश हो तो अक्षय तृतीया को पार्वती मंगल स्तोत्र का पाठ भी मंगल दोष के प्रभाव को क्षीण करता है। नित्य पार्वती-मङ्गल का पाठ करने से दाम्पत्य सुख में वृद्धि होती है।

॥ श्रीहरि: ॥
 ॥ मूल पाठ ॥
 श्री बिनइ गुरहिं गुनिगनहि गिरहि गगनाथहि।
 हृदयँ आनि सिय राम धरे धनु भाथहि ॥ १ ॥ 
 गावदँ गौरि गिरीस बिबाह सुहावन।
 पाप नसावन पावन मुनि मन भावन ॥ २ ॥ 
 कबित रीति नहिं जानउँ कबि न कहावउँ।
 संकर चरित सुसरित मनहिं अन्हवावउँ ॥ ३ ॥ 
 पर अपबाद-बिबाद -बिदूषित बानिहि।
 पावन करौं सो गाइ भवेस भवानिहिं ॥ ४ ॥ 
 जय संबत फागुन सुदि पाँचैं गुरू छिनु।
 अस्विनि बिरचेउँ मंगल सुनि सुख छिनु छिनु ॥ ५ ॥ 
 गुरू -निधानु हिमवानु धरनिधर धुर धनि।
 मैना तासु घरनि घर त्रिभुवन तिनमनि ॥ ६ ॥ 
 कहहु सुकृत केहि भाँति सराहिय तिन्ह कर।
 लीन्ह जाइ जग जननि जनमु जिन्ह के घर ॥ ७ ॥ 
 मंगल खानि भवनि प्रगट जब ते भइ।
 तब ते रिधि-सिधि संपति गिरि गृह नित नइ ॥ ८ ॥ 

 नित नव सकल कल्यान मंगल मोदमय मुनि मानहीं।
 ब्रह्मादि सुर नर नाग अति अनुराग भाग बखानहीं।
 पितु मातु प्रिय परिवारू हरषहिं निरखि पालहिं लालहीं।
 सित पाख बाढ़ति चंद्रिका जनु चंद्रभूषन- भालहीं ॥ १ ॥


 कुँअरि सयानि बिलोकि मातु-पितु सोचहिं।
 गिरिजा जागु जुरिहिं बरू अनुदिन लोचहिं ॥ ९ ॥
 एक समय हिमवान भवन नारद गए।
 गिरिबरू मैना मुदित मुनिहि पूजत भए ॥ १० ॥ 
 उमहि बोलि रिषि पगन मातु मेलत भई।
 मुनि मन कीन्ह प्रणाम बचन आसिष दई ॥ ११ ॥
 कुँअरि लागि पितु काँध ठाढ़ि भइ सोहई।
 रूप न जाइ बखानि जानु जोइ जाहई ॥ १२ ॥ 
 अति सनेहँ सतिभायँ पाय परि पुनि पुनि।
 कह मैना मृदु बचन सुनिअ बिनती मुनि ॥ 
 तुम त्रिभुवन तिहुँ काल बिचार- बिसारद।
 पारबती अनुरूप कहिय बरू नारद ॥ १४ ॥ 
 मुनि कह चौदह भुवन फिरउँ जग जहँ तहँ।
 गिरिबर सुनिय सरहना राउरि तहँ तहँ ॥ १५ ॥
 भूरि भाग तुम सरिस कतहुँ कोउ नाहिन।
 कछु न अगम सब सुगम भयो बिधि दाहिन ॥ १६ ॥

 दाहिन भए बिधि सुगम सब सुनि तजहु चित चिंता नई।
 बरू -प्रथम-बिरवा बिरचि बिरच्यो मंगला मंगलमई।
 बिधि बिलोकि चरचा चलति राउरि चतुर चतुरानन कही।
 हिमवानु कन्या जोगु बरू बाउर बिबुध बंदित सही ॥ २ ॥


 मोरेहुँ मन अस आव मिलिहिं बरू बाउर।
 लखि नारद नारदी उमहि सुख भा उर ॥ १७ ॥ 
 सुनि सहमे परि पाइ कहत भए दंपतिं।
 गिरिजहि लगे हमार जिवनु सुख संपति ॥ १८ ॥ 
 नाथ कहिय सोइ जतन मिटइ जेहिं दूषनु।
 दोष दलन मुनि कहेउ बाल बिधु भूषनु ॥ १९ ॥
 अवसि होइ सिधि साहस फलइ सुसाधन।
 कोटि कलप तरू सरिस संभु अवराधन ॥ २० ॥ 
 तुम्हरें आश्रम अबहिं ईसु तप साधहिं।
 कहिअ उमहि मनु लाइ जाइ अवराधहिं ॥ २१ ॥
 कहि उपाय दंपतिहि मुदित मुनिबर गए।
 अति सनेहँ पितु मातु उमहि सिखवत भए ॥ २२ ॥ 
 सजि समाज गिरिराज दीन्ह सबु गिरिजहि।
 बदति जननि जगदीस जुबति जनि सिरजहिं ॥  २३ ॥ 
 जननि जनक उपदेस महेसहि सेवहि ।
 अति आदर अनुराग भगति मनु भेवहि ॥ २४ ॥ 

 भवहि भगति मन बचन करम अनन्य गति हरचरन की।
 गौरव सनेह सकेाच सेवा जाइ केहि बिधि बरन की।
 गुन रूप जोबन सींव सुंदरि निरखि छोभ न हर हिएँ।
 ते धीर अछत बिकार हेतु जे रहत मनसिज बस किएँ ॥ ३ ॥


 देव देखि भल समय मनोज बुलायउ।
 कहेउ करिअ सुर काजु साजु सजि आयउ ॥ २५ ॥ 
 बामदेउ सन कामु बाम होइ बरतेउ।
 जग जय मद निदरेसि फरू पायसि फर तेउ ॥ २६ ॥ 
 रति पति हीन मलीन बिलोकि बिसूरति।
 नीलकंठ मृदु सील कृपामय मूरति ॥ २७ ॥
 आसुतोष परितोष कीन्ह बर दीन्हेउ।
 सिव उदास तजि बास अनत गम कीन्हेउ ॥ २८ ॥ 

 दोहा -
 अब ते रति तव नाथ कर होइहि नाम अनंगु।
 बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसंगु।
 जब जदुबंस कृष्न अवतारा होइहि हरन महा महि भारा।
 कृष्न तनय होइहि पति तोरा बचनु अन्यथा होइ न मोरा।


 उमा नेह बस बिकल देह सुधि बुधि गई।
 कलप बेलि बन बढ़त बिषम हिम जनु दई ॥ २९ ॥
 समाचार सब सखिन्ह जाइ घर घर कहे।
 सुनत मातु पितु परिजन दारून दुख दहे ॥ ३० ॥
 जाइ देखि अति प्रेम उमहि उर लावहिं।
 बिलपहिं बाम बिधातहि देाष लगावहिं ॥ ३१ ॥
 जौ न होहिं मंगल मग सुर बिधि बाधक।
 तौ अभिमत फल पावहिं करि श्रमु साधक ॥ ३२ ॥ 

 साधक कलेस सुनाइ सब गौरिहि निहोरत धाम को ॥ 
 को सुनइ काहि सोहाय घर चित चहत चंद्र ललामको।
 समुझाइ सबहि दृढ़ाइ मनु पितु मातु, आयसु पाइ कै।
 लागी करन पुनि अगमु तपु तुलसी कहै किमि गाइकै ॥ ४ ॥


 फिरेउ मातु पितु परिजन लखि गिरिजा पन।
 जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु आपन ॥ ३३ ॥
 तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु।
 मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु ॥ ३४ ॥ 
 सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु।
 तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु ॥ ३५ ॥ 
 पूजइ सिवहि समय तिहूँ करइ निमज्जन।
 देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं सज्जन ॥ ३६ ॥
 नींद न भूख पियास सरिस निसि बासरू ॥ 
 नयन नीरू मुख नाम पुलक तनु हियँ हरू ॥ ३७ ॥ 
 कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहिं।
 सूखे बेलके पात खात दिन गवनहि ॥ ३८ ॥ 
 नाम अपरना भयउ परन अब परिहरे।
 नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे ॥ ३९ ॥ 
 देखि सराहहिं गिरिजहिं मुनिवरू मुनि बहु।
 असनप सुन न दीख कबहुँ कहु ॥ ४० ॥ 

 काहूँ न देख्यौ, कहहिं यह तपु जोग फल फल चारि का।
 नहिं जानि जाइ न कहति चाहति काहि कुधर कुमारिका।
 बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गए।
 मनसहिं समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृदु बोलत भए ॥ ५ ॥


 देखि दसा करूनाकर हर दुख पायउ ॥ 
 मोर कठोर सुभाय हृदयँ अस आयउ ॥ ४१ ॥
 बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक ॥ 
 अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक ॥ ४२ ॥ 
 देबि करौ कछु बिनती बिलगु न मानब ॥
 कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब ॥ ४३ ॥ 
 जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर ॥
 तीय रतन तुम उपजिहु भव-रतनाकर ॥ ४४ ॥ 
 अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ ॥
 बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ ॥ ४५ ॥
 जौ बर लागि करहु तप तौ लरिकाइब ॥
 पारस जौ धर मिलै तौ मेरू कि जाइब ॥ ४६ ॥ 
 मोरे जान कलेस करिअ बिनु काजहिं ।
 सुधा कि रोगहि चाहइ रतन की राजहि ॥ ४७ ॥ 
 लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ।
 सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि निहारेउ ॥ ४८ ॥

 गौरी निहारेउ सखी मुख रूख पाइ तेहिं कारन कहा ॥
 तपु करहिं हर हितु सुनि बिहँसि बटु कहत मुरूखाई महा ॥ 
 जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेहु कलेस करि बरू बावरो ॥ 
 हित लागि कहौं सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो ॥ ६ ॥


 कहहु काह सुनि रीझिहु बर अकुलीनहिं ।
 अगुन अमान अजाति मातु पितु हीनहिं ॥ ४९ ॥
 भीख मांगि भव खाहिं चिता नित सोवहिं ।
 नाचहिं नगन पिसाच पिसाचिनि जोवहिं ॥ ५० ॥ 
 भाँग धतूर अहार छार लपटावहिं।
 जोगी जटिल सरोष भोग नहिं भावहिं ॥  ५१ ॥
 सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन।
 बामदेव फुर नाम कह मद मोचन ॥ ५२ ॥
 एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन।
 ना कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन ॥ ५३ ॥
 कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन।
 कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन ॥ ५४ ॥ 
 जो सोचइ ससि कलहि सो सोचइ रौरेहि।
 कहा मोर मन धरि न बिरय बर बौरेहि ॥  ५५ ॥
 हिए हेरि हठ तजहु हठै दुख पैहहु।
 ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितैहहु ॥ ५६ ॥ 

 पछिताब भूत पिसाच प्रेत जनेत ऐहैं साजि कै।
 जम धार सरिस निहारि सब नर-नारि चलिहहिं भाजि कै।
 गज अजिन दिब्य दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै।
 कोउ प्रगट कोउ हियँ कहिहि मिलवत अमिय माहुर घोरि कै ॥ ७ ॥


 तुमहिं सहित असवार बसहिं जब होइहहिं।
 निरखि नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ॥ ५७ ॥ 
 बटु करि कोटि कुतरक जथा रूचि बोलइ।
 अचल सुता मनु अच बयारि कि डोलइ ॥ ५८ ॥ 
 साँच सनेह साँच रूचि जो हठि फेरइ।
 सावन सरिस सिंधु रूख सूप सो घेरइ ॥ ५९ ॥ 
 मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ।
 सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ ॥ ६० ॥ 
 करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए।
 अरून नयन चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए ॥ ६१ ॥ 
 बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर।
 आलि बिदा करू बटुहि बेगि बड़ बरबर ॥ ६२ ॥ 
 कहुँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि।
 बौरेहि कैं अनुराग भइउँ बड़ि बाउरि ॥ ६३ ॥ 
 दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ।
 मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि राखेउ ॥ ६४ ॥ 
 को करि बाटु बिबादु बिषादु बढ़ावइ।
 मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ भावइ ॥ ६५ ॥
 भइ बड़ि बार आलि कहूँ काज सिधारहिं।
 बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगुति सवाँरहिं ॥ ६६ ॥ 

 जनि कहहिं कछु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की।
 सिव साधु निंदकु मंद अति जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी।
 सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो।
 भए प्रगट करूनासिंधु संकरू भाल चंद सुहावने ॥ ८ ॥


 सुंदर गौर सरीर भूति भलि सोहइ।
 लोचन भाल बिसाल बदनु मन मोहइ ॥ ६७ ॥ 
 सौल कुमारि निहारि मनोहर मुरति।
 सजल नयन हियँ हरषु पुलक तन पूरति ॥ ६८ ॥
 पुनि पुनि करै प्रनामु न आवत कछु कहि।
 देखौं सपन कि सौतुख ससि सेखर -सहि ॥ ६९ ॥ 
 जैसें जनम दरिद्र महामनि पावइ।
 पेखत प्रगट प्रभाउ प्रतीति न आवइ ॥ ७० ॥ 
 सुफल मनोरथ भयउ गौरि सोहइ सुठि।
 घर तें खेलन मनहुँ अबहिं आई उठि ॥ ७१ ॥
 देखि रूप अनुराग महेस भए बस।
 कहत बचन जनु सानि सनेह सुधा रस ॥ ७२ ॥ 
 हमहिं आजु लगि कनउड़ काहुँ न कीन्हेउ।
 पारबती तप प्रेम मोल मोहि लीन्हेउ ॥ ७३ ॥
 अब जो कहहु सो करउँ बिलंबु न ऐहिं घरी।
 सुनि महेस मृदु बचन पुलकि पायन्ह परी ॥ ७४ ॥ 

 परि पायँ सखि मुख कहि जनायो आपु बाप अधीनता।
 परितोषि गिरिजहि चले बरनत प्रीति नीति प्रबीनता।
 हर हृदयँ धरि घर गौरि गवनी कीन्ह बिधि मन भावनो ।
 आनंद प्रेम समाजु मंगल गान बाजु बधावनो ॥ ९ ॥


 सिव सुमिरे मुनि सात आइ सिर नाइन्हि।
 कीन्ह संभु सनमानु जन्म जन्म फल पाइन्हि ॥ ७५ ॥ 
 सुमिरहिं सकृत तुम्हहिं जन तेइ सुकृती बर ॥ 
 नाथ जिन्हहि सुधि करिअ तिनहिं सम तेइ हर ॥ ७६ ॥ 
 सुनि मुनि बिनय महेस परम सुचा पायउ।
 कथा प्रसंग मुनीसन्ह सकल सुनायउ ॥ ७७ ॥ 
 जाहु हिमाचल गेह प्रसंग चलायहु।
 जौं मन मान तुम्हार तौ लगन धरायहु ॥ ७८ ॥ 
 अंरूधती मिलि मनहिं बात चलाइहि।
 नारि कुसल इहिं काज काजु बनि आइहि ॥ ७९ ॥ 
 दुलहिनि उमा ईसु बरू साधक ए मुनि ।
 बनिहि अवसि यहु काजु गगन भइ अस धुनि ॥ ८० ॥
 भयउ अकानि आनंद महेस मुनीसन्ह।
 देहिं सुलोचनि सगुन कलस लिएँ सीसन्ह ॥ ८१ ॥ 
 सिव सो कहेउ दिन ठाउँ बहोरि मिलनु जहँ।
 चले मुदित मुनिराज गए गिरिबर पहँ ॥ ८२ ॥ 

 गिरि गेह ते अति नेहँ आदर पुजि पहुँनाई करी।
 घरवात घरनि समेत कन्या आनि सब आगें धरी।
 सुखु पाइ बात चलाइ सुदिन सोधाइ गिरिहि सिखाइ कै।
 रिषि सात प्रातहिं चले प्रमुदित ललित लगन लिखाइ कै ॥ १० ॥


 बिप्र बृंद सनमानि पुजि कुल गुर सुर।
 परेउ निसानहिं घाउ चाउ चहुँ दिसि पुर ॥ ८३ ॥ 
 गिरि बन सरित सिंधु सर सुनइ जो पायउ।
 सब कहँ गिरिबर नायक नेवत पठायउ ॥ ८४ ॥ 
 धरि धरि सुंदर बेष चले हरिषित हिएँ।
 चवँर चीर उपहार हार मनि गन लिएँ ॥ ८५ ॥ 
 कहेउ हरषि हिमवान बितान बनावन।
 हरिषित लगीं सुआसिनि मंगल गावन ॥ ८६ ॥ 
 तोरन कलस चवँर धुज बिबिध बनाइन्हि।
 हाट पटोरन्हि छाय सफल तरू लाइन्हि ॥ ८७ ॥ 
 गौरी नैहर केहि बिधि कहहु बखानिय।
 जनु रितुराज मनोज राज रजधानिय ॥ ८८ ॥ 

 जनु राजधानी मदन की बिरची चतुर बिधि और हीं।
 रचना बिचित्र बिलोकि लोचन बिथकि ठौरहिं ठौर हीं।
 एहि भँाति ब्याह समाज सजि गिरिराजु मगु जोवन लगे।
 तुलसी लगन लै दीन्ह मुनिन्ह महेस आनँद रँग मगे ॥ ११ ॥


 बेगि बोलाइ बिरंचि बचाइ लगन जब ।
 कहेन्हि बिआहन चलहु बुलाइ अमर सब ॥ ८९ ॥
 बिधि पठए जहँ तहँ सब सिव गन धावन ।
 सुनि हरषहिं सुर कहहिं निसान बजावन ॥ ९० ॥ 
 रचहिं बिमान बनाइ सगुन पावहिं भले।
 निज निज साजु समाजु साजि सुरगन चले ॥ ९१ ॥ 
 मुदित सकल सिवदूत भूत गन गाजहिं।
 सूकर महिष स्वान खर बाहन साजहिं ॥ ९२ ॥ 
 नाचहिं नाना रंग तरंग बढ़ावहिं।
 अज उलूक बृक नाद गीत गन गावहिं ॥ ९३ ॥ 
 रमानाथ सुरनाथ साथ सब सुर गन।
 आए जहँ बिधि संभु देखि हरषे मन ॥ ९४ ॥ 
 मिले हरिहिं हरु हरषि सुभाषि सुरेसहि।
 सुर निहारि सनमानेउ मोद महेसहि ॥ ९५ ॥ 
 बहु बिधि बाहन जान बिमान बिराजहिं।
 चली बरात निसान गहागह बाजहिं ॥ ९६ ॥ 

 बाजहिं निसान सुगान नभ चढ़ि बसह बिधुभूषन चले।
 बरषहिं सुमन जय जय करहिं सुर सगुन सुभ मंगल भले।
 तुलसी बराती भूत प्रेत पिसाच पसुपति सँग लसे।
 गज छाल ब्याल कपाल माल बिलोकि बर सुर हरि हँसे ॥ १२ ॥


 बिबध बोलि हरि कहेउ निकट पुर आयउ।
 आपन आपन साज सबहिं बिलगायउ ॥ ९७ ॥ 
 प्रमथनाथ के साथ प्रमथ गन राजहिं।
 बिबिध भाँति मुख बाहन बेष बिराजहिं ॥ ९८ ॥
 कमठ खपर मढि खाल निसान बजावहिं।
 नर कपाल जल भरि-भरि पिअहिं पिआवहिं ॥ ९९ ॥ 
 बर अनुहरत बरात बनी हरि हँसि कहा ॥
 सुनि हियँ हँसत महेस केलि कौतुक महा ॥ १०० ॥ 
 बड़ बिनोद मग मोद न कछु कहि आवत।
 जाइ नगर नियरानि बरात बजावत ॥ १०१ ॥ 
 पुर खरभर उर हरषेउ बचल अखंडलु।
 परब उदधि उमगेउ जनु लखि बिधु मंडलु ॥ १०२ ॥ 
 प्रमुदित गे अगवान बिलोकि बरातहि।
 भभरे बनइ न रहत न बनइ परातहि ॥ १०३ ॥
 चले भाजि गज बाजि फिरहिं नहिं फेरत।
 बालक भभरि भुलाल फिरहिं घर हेरत ॥ १०४ ॥ 
 दीन्ह जाइ जनवास सुपास किए सब।
 घर घर बालक बात कहन लागे तब ॥ १०५ ॥ 
 प्रेत बेताल बराती भूत भयानक।
 बरद चढ़ा बर बाउर सबइ सुबानक ॥ १०६ ॥ 
 कुसल करइ करतार कहहिं हम साँचिअ।
 देखब कोटि बिआह जिअत जौं बाँचिअ ॥ १०७ ॥ 
 समाचार सुनि सोचु भयउ मन मयनहिं।
 नारद के उपदेस कवन घर गय नहिं ॥ १०८ ॥ 

 घर घाल चालक कलह प्रिय कहियत परम परमारथी।
 तैसी बरेखी कीन्हि पुनि सात स्वारथ सारथी ॥ 
 उर लाइ उमहि अनेक बिधि जलपति जननि दुख मानई।
 हिमवान कहेउ इसान महिमा अगम निगम न जानई ॥ १३ ॥


 सुनि मैना भइ सुमन सखी देखन चली।
 जहँ तहँ चरचा चलइ हाट चौहट गली ॥ १०९ ॥ 
 श्रीपति सुरपति बिबुध बात सब सुनि सुनि।
 हँसहिं कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि पुनि ॥ ११० ॥ 
 लखि लौकिक गति संभु जानि बड़ सोहर ॥
 भए सुंदर सत कोटि मनोज मनोहर ॥ १११ ॥ 
 नील निचोल छाल भइ फनि मनि भूषन ।
 रोम रोम पर उदित रूपमय पूषन ॥ ११२ ॥ 
 गए भए मंगल बेष मदन मन मोहन ।
 सुनत चले हियँ हरषि नारि नर जोहन ॥ ११३ ॥ 
 संभु सरद राकेस नखत गन सुर गन।
 जनु चकोर चहुँ ओर बिराजहिं पुर जन ॥ ११४ ॥ 
 गिरबर पठए बोलि लगन बेरा भई।
 मंगल अरघ पाँवड़े देत चले लई ॥ ११५ ॥ 
 होहिं सुमंगल सगुन सुमन बरषहिं सुर।
 गहगहे गान निसान मोद मंगल पुर ॥ ११६ ॥
 पहिलिहिं पवरि सुसामध भा सुख दायक।
 इति बिधि उत हिमवान सरिस सब लायक ॥ ११७ ॥ 
 मनि चामीकर चारू थार सजि आरति रति ।
 सिहाहिं लखि रूप गान सुनि भारति ॥ ११८ ॥
 भरी भाग अनुराग पुलकि तन मुद मन।
 मदन मत्त गजगवनि चलीं बर परिछन ॥ ११९ ॥ 
 बर बिलोकि बिधु गौर सुअंग उजागर।
 करति आरती सासु मगन सुख सागर ॥ १२० ॥

 सुख सिंधु मगन उतारि आरति करि निछावर निरखि कै।
 मगु अरघ बसन प्रसून भरि लेइ चलीं मंडप हरषि कै।
 हिमवान् दीन्हें उचित आसन सकल सुर सनमानि कै।
 तेहि समय साज समाज सब राखे सुमंडप आनि कै ॥ १४ ॥


 अरघ देइ मनि आसन बर बैठायउ।
 पूजि कीन्ह मधुपर्क अमी अचपायउ ॥ १२१ ॥ 
 सप्त रिसिन्ह बिधि कहेउ बिलंब न लाइअ।
 लगन बेर भइ बेगि बिधान बनाइउ ॥ १२२ ॥ 
 थापि अनल हर बरहिं बसन पहिरायउ।
 आनहु दुलहिनि बेगि समय अब आयउ ॥ 
 सखी सुआसिनि संग गौरि सुठि सोहति।
 प्रगट रूपमय मूरति जनु जग मोहति ॥ १२४ ॥ 
 भूषन बसन समय सम सोभा सो भली।
 सुषमा बेलि नवल जनु रूप-फलनि फली ॥ १२५ ॥
 कहहु काहि पटतरिय गौरि गुन रूपहि।
 सिंधु कहिय केहि भाँति सरिस सर कूपहिं ॥ १२६ ॥
 आवत उमहिं बिलोकि सीस सुर नावहिं।
 भव कृतारथ जनम सुख पावहिं ॥ १२७ ॥ 
 बिप्र बेद धुनि करहिं सुभासिष कहि कहि।
 गान निसान सुमन झरि अवसर लहि लहि ॥ १२८ ॥ 
 बर दुलहिनिहि बिलोकि सकल मन हरसहिं।
 साखोच्चार समय सुर मुनि बिहसहिं ॥ १२९ ॥ 
 लोक बेद बिधि कीन्ह लीन्ह जल कुस कर।
 कन्या दान सँकलप कीन्ह धनीधर ॥ १३० ॥
 पूजे कुल गुर देव कलसु सिल सुभ घरी।
 लावा होम बिधान बहुरि भाँवरि परी ॥ १३१ ॥ 
 बंदन बंदि ग्रंथि बिधि करि धुव देखेउ।
 भा बिबाह सब कहहिं जनम फल पेखेउ ॥ १३२ ॥ 

 पेखेउ जनम फलु भा बिबाह उछाह उमगहि दस दिसा।
 नीसान गान प्रसूत झरि तुलसी सुहावनि सो निसा।
 दाइस बसन मनि धेनु धन हय गय सुसेवक सेवकी ।
 दीन्हीं मुदित गिरिराज जे गिरिजहिं पिआरी पेव की ॥ १५ ॥
 

 बहुरि बराती मुदित चले जनवासहि।
 दूलहु दुलहिन गे तब हास-अवासहि ॥ १३३ ॥
 रोकि द्वार मैना तब कौतुक कीन्हेउ।
 करि लहकौरि गौरि हर बड़ सुख दीन्हेउ ॥ १३४ ॥
 जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि।
 आपनि ओर निहारि प्रमेाद पुरतारिहि ॥  १३५ ॥ 
 सखी सुआसिनि सासु पाउ सुख सब बिधि ॥ 
 जनवासेहि बर चलेउ सकल मंगल निधि ॥ १३६ ॥ 
 भइ जेवनारि बहोरि बुलाइ सकल सुर ॥ 
 बैठाए गिरिराज धरम धरनि धुर  ॥  १३७ ॥ 
 परूसन लगे सुआर बिबुध जन जेवहिं ॥ 
 देहिं गारि बर नारि मोद मन भेवहिं ॥ १३८ ॥ 
 करहिं सुमंगल गान सुघर सहनाइन्ह।
 जेइँ चले हरि दुहिन सहित सुर भाइन्ह ॥ १३९ ॥ 
 भूधर भोरू बिदा कर साज सजायउ।
 चले देव सजि जान निसान बजायउ ॥ १४० ॥ 
 सनमाने सुर सकल दीन्ह पहिरावनि।
 कीन्ह बड़ाई बिनय सनेह सुहावनि ॥ १४१ ॥ 
 गहि सिव पद कह सासु बिनय मृदु मानबि  ॥
 गौरि सजीवन मूरि मोरि जियँ जानबि ॥ १४२ ॥ 
 भेंटि बिदा करि बहुरि भेंटि पहुँचावहिं।
 हुँकरि हुँकरि सु लवाइ धेनु जनु धावहिं ॥ १४३ ॥ 
 उमा मातु मुख निरखि नैन जल मोचहिं।
 नारि जनमु जग जाय सखी कहि सोचहिं ॥ १४४ ॥ 
 भेंटि उमहिं गिरिराज सहित सुत परिजन ।
 बहुत भाँति समुझाइ फिरे बिलखित मन ॥ १४५  ॥
 संकर गौरि समेत गए कैलासहि।
 नाइ नाइ सिर देव चले निज बासहिं ॥ १४६ ॥
 उमा महेस बिआह उछाह भुवन भरे ।
 सब के सकल मनोरथ बिधि पूरन करे ॥ १४७ ॥ 
 प्रेम पाट पटडोरि गौरि हर गुन मनि।
 मंगल हार रचेउ कबि मति मृगलोचनि ॥ १४८ ॥ 

 मगनयनि बिधुबदनी रचेउ मनि मंजु मंगलहार सो।
 उर धरहुँ जुबती जन बिलोकि तिलोक सोभा सार सो।
 कल्यान काज उछाह व्याह सनेह सहित जो गाइहैं ।
 तुलसी उमा संकर प्रसाद प्रमोद मन प्रिय पाइहै ॥ १६ ॥ 

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