Saturday, November 24, 2018

अश्विनीकुमार

देवता विश्‍वकर्मा को त्वष्टा भी कहा जाता है। उनकी पुत्री का नाम संज्ञा था। संज्ञा को कहीं-कहीं प्रभा भी कहा गया है। विश्‍वकर्मा ने अपनी इस पुत्री का विवाह भगवान सूर्य से कर दिया। विवाह के बाद संज्ञा ने वैवस्वत और यम नामक दो पुत्रों और यमुना नामक एक पुत्री को जन्म दिया। संज्ञा बड़े कोमल स्वभाव की थी, जबकि सूर्य प्रचंड स्वभाव के थे। ऐसे में बड़े कष्टों के साथ संज्ञा सूर्यदेव के तेज को सहन कर रही थी। जब यह सब असहनीय हो गया तो वह अपनी छाया को सूर्यदेव की सेवा में छोड़कर अपने पिता के घर लौट गई। बहुत दिनों बाद पिता विश्वकर्मा ने उसे अपने पति के घर लौटने को कहा, लेकिन वह वहां नहीं जाना चाहती थी। तब वह उत्तरकुरु नामक स्थान (उत्तरी ध्रुव के पास) पर घोड़ी का रूप बनाकर तपस्या करने लगी। इधर सूर्यदेव, संज्ञा की छाया को ही संज्ञा समझते थे। एक दिन छाया ने किसी बात से क्रोधित होकर संज्ञा के पुत्र यम को शाप दे दिया। शाप से भयभीत होकर यम अपने पिता सूर्य के पास गए और माता द्वारा शाप देने की बात बताई।माता ने अपने पुत्र को शाप दे दिया, यह सुनकर सूर्य को छाया पर संदेह होने लगा। तब सूर्य ने छाया को बुलाकर उसकी सच्चाई जाननी चाही। छाया ने जब कुछ नहीं बताया और वह चुप रह गई, तब सूर्यदेव उसे शाप देने को तैयार हो गए। ऐसे में भयभीत छाया ने सब कुछ सच-सच बता दिया।

फिर सूर्यदेव ने उसी क्षण आंखें बंद करके देखा कि संज्ञा उत्तरकुरु नामक स्थान पर घोड़ी का रूप धारण कर उनके तेज को सौम्य और शुभ करने के उद्देश्य से कठोर तपस्या कर रही है। तब सूर्यदेव ने अपने ससुर विश्वकर्मा के पास जाकर उनसे अपना तेज कम करने की प्रार्थना की।
विश्वकर्मा ने उनके तेज को कम कर दिया। तेज कम होने के बाद सूर्यदेव घोड़े का रूप बनाकर संज्ञा के पास गए और वहीं उसके साथ संसर्ग किया। पर-पुरुष कि आशंका से उसने अपने दोनों नासापुटों से सूर्य के तेज को एक साथ बाहर फेंक दिया, जिससे उन्हें नासत्य, दस्त्र की उत्पत्ति हुई । तेज के अंतिम अंश से रेवन्त कि उत्पत्ति हुई । नासत्य और दस्त्र अश्विनीकुमार के नाम से प्रसिद्ध हुए। कार्तिक शुक्ल द्वितीय को अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ। सूर्य ने प्रसन्न होकर संज्ञा से वर मांगने को कहा। संज्ञा ने अपने पुत्र वैवस्वत के लिए मनु पद, यम के लिए शाप मुक्ति और यमुना के लिए नदी के रूप में प्रसिद्ध होना मांगा। भगवान सूर्यदेव ने इच्छित वर प्रदान किया।
वैवस्वत सातवें मन्वन्तर का स्वामी बनकर मनु पद पर आसीन हुआ। इस मन्वंतर में ऊर्जस्वी नामक इन्द्र थे। अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप, गौतम, भारद्वाज, विश्वामित्र और जमदग्नि- ये सातों इस मन्वंतर के सप्तर्षि थे। इस मन्वंतर में भगवान विष्णु ने महर्षि कश्यप की पत्नी अदिति के गर्भ से वामन नाम से अवतार लेकर तीनों लोकों को दैत्यराज बलि के अधिकार से मुक्त किया।
एक अन्य कथा के अनुसार अश्विनीकुमार त्वष्टा की पुत्री प्रभा नाम की स्त्री से उत्पन्न सूर्य के 2 पुत्र हैं। ये दोनों भगवान् सूर्य के पुत्र हैं, जो देव वैद्य-चिकित्सक हैं, जिन्हें देवता नहीं माना गया, मगर च्यवन ऋषि ने उन्हें यह स्थान दिलवाया और सोमरस पान करने का अधिकार दिलवाया।
जनकल्याण में रत रहने वाले देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार ब्रह्मविद्या की अभिलाषा लेकर महर्षि दधीचि के पास पहुंचे। अश्विनीकुमार शल्य चिकित्सा एवं संजीवन विद्या में निष्णात थे। इन्होंने संजीवनी विद्या का ज्ञान दैत्य गुरु शुक्राचार्य से प्राप्त किया था। उनकी इतनी सिद्धि थी कि उनके स्मरण मात्र से रोगों की मुक्ति हो जाती थी। वे वेश बदलकर दीन-दुखियों के दु:ख दूर करने चाहे जहां पहुंच जाते थे। इस कारण देवराज इन्द्र उनसे नाराज हो गए और उनहें सोमपान से निषेध कर दिया। कालान्तर में महर्षि च्यवन ने सोमपान का अधिकार पुन: दिलवाया। महर्षि दधीचि ने ऐसे अश्विनीकुमारों को सभी प्रकार से सुपात्र जानकर उन्हें ब्रह्म विद्या सिखाने का निर्णय किया। उस समय महर्षि ने अन्य कार्यों में व्यस्त होने के कारण उन्हें फिर किसी समय आने के लिए कहा।
यह बात ज्ञात होने पर देवराज इन्द्र ने महर्षि के पास पहुंचकर उनसे निवेदन किया कि ब्रह्म विद्या का ज्ञान अश्विनी कुमारों को न देकर सिर्फ मुझे ही दें। मैं देवताओं का राजा हूं। इस पर महर्षि ने कहा -  देवराज ब्राह्मण का कर्त्तव्य योग्य छात्र को विद्यादान करना है। यदि योग्य छात्र को विद्यादान नहीं करें तो वह मरणोपरांत ब्रह्मराक्षस बनता है, अत: आपकी आज्ञा का पालन करना मेरे लिए संभव नहीं है। इस पर देवराज इन्द्र ने क्रोधित होकर राजमद में कहा कि मेरे सिवाय ब्रह्म विद्या का ज्ञान अगर अश्विनी कुमारों को दिया तो मैं आपका शिरोच्छेद कर दूंगा। कुछ समय के बाद वैद्य अश्विनी कुमार महर्षि के पास ब्रह्म विद्या प्राप्त करने आये। महर्षि ने इन्द्र का सब वृतान्त सुनाया तथा ज्ञान दान के लिए तत्पर हुए। वैद्य अश्विनी कुमार अश्वमुखी थे। उन्होंने महर्षि से प्रार्थना की कि हम अश्वमुखी हैं। हम पिता सूर्य और माता अश्वा के पुत्र हैं। हमारी मातृभाषा अश्व की भाषा है। अगर हमें हमारी मातृभाषा में विद्यादान दिया जाये तो हमें आत्मसात करने में सुगमता होगी। इस पर महर्षि ने प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा कि विद्या तो मातृभाषा में ही दी जाना चाहिए मातृभाषा में विद्यादान करने से वह सरलता से सीखी जा सकती है किन्तु मैं अश्व की भाषा नहीं जानता। इस पर अश्विनी कुमारों ने कहा कि हम शल्य चिकित्सक है तथा मृत संजीवनी विद्या एवं सौर विकरण पद्धति के जानकार हैं। सूर्य भगवान के उदय के समय निकलने वाली गौ किरण से रक्त एवं वेदना विहीन शल्य क्रिया के माध्यम से आपका मूल मस्तक उतारकर अश्व का मस्तक प्रत्यारोपित कर आपसे अपनी मातृभाषा में यह ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं।
महर्षि की स्वीकृति से अश्विनी कुमार ने शल्य क्रिया द्वारा महर्षि का मस्तक उतारकर  सुरक्षित रख एवं उसके स्थान पर अश्व का सिर आरोपित कर अपनी मातृभाषा में ब्रह्म विद्या का ज्ञान प्राप्त किया। इस पर अश्वमुख से ज्ञान दिए जाने के कारण ब्रह्म विद्या का नाम अश्वशिरा पड़ा। (श्रीमद भागवद स्कंद से) जब दम्भी देवराज इन्द्र को महर्षि दधीचि द्वारा अश्विनी कुमारों को ब्रह्मविद्या का ज्ञान देने का पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर महर्षि का शिरोच्छेदन कर उसे शर्यणावत सरोवर में फेंक दिया, किन्तु ऋषि की पत्नी के शाप के भय से देवराज वहां से तत्काल भाग गए तथा उन्हें यह भी भान नहीं रहा कि महर्षि के कौनसे सिर का छेदन किया है। देवराज के जाने के बाद अश्विनी कुमारों ने महर्षि का सुरक्षित रखा मस्तक पुन: प्रत्यारोपित कर दिया। महर्षि अपने शिष्यों के इस ज्ञान से अत्यंत प्रसन्न हुए।
उल्लेखनीय है कि कुंती ने माद्री को जो गुप्त मंत्र दिया था उससे माद्री ने इन दो अश्‍विनी कुमारों का ही आह्वान किया था। 5 पांडवों में नकुल और सहदेव इन दोनों के पुत्र हैं।
ऋग्वेद में 376 वार इनका वर्णन है, जो 57 ऋचाओं में संगृहीत हैं: 1.3, 1.22, 1.34, 1.46-47, 1.112, 1.116-120 (c.f. Vishpala), 1.157-158, 1.180-184, 2.20, 3.58, 4.43-45, 5.73-78, 6.62-63, 7.67-74, 8.5, 8.8-10, 8.22, 8.26, 8.35, 8.57, 8.73, 8.85-87, 10.24, 10.39-41, 10.143.
पौराणिक इतिहास के जानकार की माने तो ऋग्वेद के अस्य वामस्य सुक्त में कहा गया है कि मंगल की जन्म धरती पर हुआ है। जब धरती ने मंगल को जन्म दिया तब मंगल को उससे दूर कर दिया गया। इस घटना के चलते धरती अपना संतुलन खो बैठी और अपनी धुरी पर तेजी से घूमने लगी।
ऐसा माना जाता है कि उस समय धरती को संभालने के लिए दैवीय वैध, अश्विनी कुमार ने त्रिकोणीय आकार का लोहा उसके स्थान पर लगा दिया, जहां से मंगल की उत्पत्ति हुई थी। इसके बाद धरती अपनी उसी अवस्था में धीरे-धीरे रुक गई। माना जाता है कि इसी कारण से पृथ्वी एक विशेष कोण पर झुकी हुई है. यही झुका हुआ स्थान बरमूडा त्रिकोण माना जा रहा है।

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