Saturday, November 24, 2018

खैर (कत्था)

खैर (कत्था) 
 कत्था भारत में एक सुपरिचित वस्तु है, जो मुख्य रूप से पान में लगाकर खाने के काम आता है। कभी-कभी औषधि और रंग के रूप में भी इसका प्रयोग होता है। कत्था 'खैर' नामक वृक्ष की भीतरी कठोर लकड़ी से निकाला जाता है। खैर के वृक्ष भारत भर में, विशेषत: सूखे क्षेत्रों में पाए जाते हैं। खैर का वृक्ष वनस्पति विज्ञान में, असली कैटिचू किस्म का कहा जाता है। यह पंजाब, जम्मू-कश्मीर, उत्तर प्रदेश में गढ़वाल और कुमाऊँ, बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तरी कनारा और दक्षिण में गंजाम तक पाया जाता है। इसका पेड़ बहुत बड़ा होता है और प्राय; समस्त भारत में से पाया जाता है लेकिन उत्तर प्रदेश के खैर शहर मे ये अधिक मात्रा मे पाया जाता है। इसके हीर की लकड़ी भूरे रंग की होती हैं, घुनती नहीं और घर तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है। बबूल की तरह इसमें भी एक प्रकार का गोंद निकलता है और बड़े काम का होता है।


यह वृक्ष मध्यमाकार एवं बबूल की जाति का होता है। इसका वृक्ष 15 से 20 फीट ऊँचा होता है पतियाँ बबूल के सामान ही होती है | पत्र 10 से 15 सेमी. लम्बे होते है जिनपर 40 से 50 के लगभग पक्ष लगे रहते है| खैर के फूल हल्के-पीले रंग के छोटे-छोटे तथा फली 2-3 इंच तक लम्बी आध-पौन इंच चौड़ी पतली चमकदार और कत्थई रंग की होती है। प्रत्येक फली में 5 से लेकर 8 तक बीज होते है फली हेमंत ऋतू में लगती है |
 खैर (कत्था) का वैज्ञानिक नाम: Senegalia catechu
 लैटिन -एकेषिया कटेचु।(Acacia catechu)
 संस्कृत नाम: खदिर
 हिंदी नाम: खैर, कत्था
 खैर (कत्था) का प्रजातियाँ: श्वेत-खदिर, रक्तकर्पिश-खदिर, रक्त-खदिर,
 खैर (कत्था) का रासायनिक संघटन: इसमें खदिरसार 35%, टैनिन द्रव्य 57% एवं इसमें कैटेचीन नामक सत्व मिलता है।
 कत्था कैसे बनता हैं ?
 पेड़ की छाल आधे से पौन इंच मोटी होती है और यह बाहर से काली भूरी रंग की और अंदर से भूरी रंग की होती है। जब इसके पेड़ के तने लगभग एक फुट मोटे हो जाते हैं तब इसे काटकर छोटे-छोटे टुकडे बनाकर गर्म पानी में पकाया जाता है। गाढा होने के बाद इसे चौकोर बर्तन में सुखाया जाता है और वहीं इसे काटकर चौकोर टुकड़ों में काट लिया जाता है। इसे कत्था कहते हैं। पान की दुकान वाले इसे किसी बर्तन में रखकर पानी के साथ मिलाते हैं और फिर पान के पत्तियों पर लगा कर परोसते हैं।

 कत्थे का पारम्परिक चिकित्सा मे उपयोग -
 मलेरिया : मलेरिया बुखार होने पर कत्था एक बेहतर औषधि के रूप में काम करता है। समय-समय पर इसकी समान मात्रा को गोली बनाकर चूसने से मलेरिया से बचाव किया जा सकता है।
 दांतों की बीमारी : कत्थे को मंजन में मिलाकर दांतों व मसूढ़ों पर रोज सुबह-शाम मलने से दांत के सभी रोग दूर होते हैं।
 दांतों के कीड़े : कत्थे को सरसों के तेल में घोल कर रोजाना 3 से 4 बार मसूढ़ों पर मलें। इससे खून तथा बदबू आना बंद हो जायेगा।
 खट्टी डकार : कत्था का सुबह शाम सेवन करने से खट्टी डकार बंद हो जाती है।
 दस्त : कत्थे को पका कर प्रयोग करने से दस्त बंद हो जाता है। साथ ही इसके प्रयोग से पाचन शक्ति भी ठीक होती है।
 बवासीर : सफेद कत्था, बड़ी सुपारी और नीलाथोथा बराबर मात्रा में लें। पहले सुपारी व नीलाथोथा को आग पर भून लें और फिर इस में कत्थे को मिला कर पीस कर चूर्ण बना लें। इस चूर्ण को मक्खन में मिला कर पेस्ट बनाएं। इस पेस्ट को रोज सुबह-शाम शौच के बाद 8 से 10 दिन तक मस्सों पर लगाने से मस्से सूख जाते हैं।
 गले की खराश : कत्थे का चूर्ण मुंह में रख कर चूसने से गला बैठना, आवाज रुकना, गले की खराश और छाले आदि दूर हो जाते हैं। इसका दिन में 5 से 6 बार प्रयोग करना चाहिए।
 कान दर्द : सफेद कत्थे को पीस कर गुनगुने पानी में मिला कर कानों में डालने से कान दर्द दूर होता है।
 कुष्ठ रोग : कत्थे के काढ़े को पानी में मिलाकर प्रति दिन नहाने से कुष्ठ रोग ठीक होता है।
 योनि की जलन और खुजली : 5 ग्राम की मात्रा में कत्था, विण्डग और हल्दी लेकर पानी के साथ पीस कर योनि पर लगाएं। इससे खुजली और जलन दोनों ठीक हो जाएगी।
 खांसी : अगर आप लगातार खांसी से परेशान हैं, तो कत्थे को हल्दी और मिश्री के साथ एक-एक ग्राम की मात्रा में मिलाकर गोलियां बना लें। अब इन गोलियों को चूसते रहें। इस प्रयोग को करने से खांसी दूर हो जाती है।
 घाव : किस प्रकार की चोट लगने पर घाव हो जाए, तो उसमें कत्थे को बारीक पीसकर इस चूर्ण को डाल दें। लगातार ऐसा करने पर घाव जल्दी भर जाता है और खून का निकलन भी बंद हो जाता।
 प्रदर रोग : कत्थे और बांस के पत्तों को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें और इसमें 6 ग्राम शहद की मात्रा लेकर पेस्ट बनाकर खाएं। इस प्रयोग को करने से लाभ मिलता है।
 दमा रोग : सांस संबंधी समस्याओं के लिए भी कत्था बहुत अच्छी औषधि है। इसे हल्दी और शहद के साथ मिलाकर दिन में दो से चार बार एक चम्मच की मात्रा में लेने से काफी लाभ होता है।
 नोट: गर्भवती स्त्रियों को कत्थे का सेवन नहीं करना चाहिए, और पुरुषों में इसका अत्यधिक सेवन नपुंसकता का कारण बन सकता है। इसके अलावा कत्‍थे के अधिक सेवन से किडनी स्टोन भी हो सकता है।

 नकली कत्था - (यूनकेरिया कटेच्यू)
 व्हाइट कटेच्यू पौधे की पत्तियों से बनता है रंग देने वाला पाउडर

 पान मसाले में कैंसर का कारण बनने वाले जिस गैम्बियर रसायन की बात सामने आई है, वह इंडोनेशिया और मलेशिया में पाए जाने वाले झाड़ीनुमा पेड़ (यूनकेरिया कटेच्यू) से तैयार किया जाता है। यह 19वीं शताब्दी में व्यापार का अहम हिस्सा बना। इसका इस्तेमाल डाई करने, चीजों को रंग देने और हर्बल दवाएं बनाने में किया जाता है। इस पेड़ को पेल कटेच्यू या व्हाइट कटेच्यू के नाम से भी जाना जाता है। रंग तैयार करने के लिए इस पौधे की पत्तियों को पानी में उबालते हैं, जिसके बाद पानी का रंग भूरा हो जाता है। इस पानी को छोटे-छोटे क्यूब में रखकर धूप में सुखाते हैं। गंधरहित गैम्बियर व्हाइट कटेच्यू पत्तियों की मदद से चीजों को पीले से लेकर भूरा रंग तक दिया जा सकता है।
 समझें कत्था और गैम्बियर का फर्क

 पान मसाला बनाने वाली कई कंपनियां कह रही हैं कि वे गैम्बियर के विकल्प के तौर पर खैर कत्था (भारतीय कत्था) का इस्तेमाल कर रही हैं। उनका दावा है कि खैर कत्था नुकसान नहीं पहुंचाता है, लेकिन कैंसर विशेषज्ञ उनकी इस बात से सहमत नहीं हैं। भारतीय कत्था खैर नाम के पौधे की लकड़ी से तैयार होता है, जिसकी पैदावार उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश और नेपाल के जंगलों में होती है। द इंडियन फॉरेस्टर जर्नल में फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट, देहरादून के प्रोफेसर पीएल सोनी ने लिखा है कि गैम्बियर और कत्थे में काफी समानताएं हैं। गैम्बियर में कई तरह ही भारी धातुएं पाई जाती हैं।

 सुपारी भी बनती है कैंसर और दांतों-जबड़ों की बीमारी का कारण
 1. पान मसाला सिर्फ रंग से ही नहीं स्वाद और खुशबू से भी खाने वालों को आकर्षित करता है। रंग देने वाले केमिकल गैम्बियर के अलावा स्वाद के लिए इस्तेमाल होने वाली सुपारी भी कैंसर का कारण बनने के लिए जिम्मेदार है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने इसकी पुष्टि भी की है।
 2. पान मसाले में रंग, स्वाद और खुशबू के लिए बीटल नट (सुपारी), लाइम, इलायची, मेंथॉल और कई तरह रसायनयुक्त फ्लेवर को शामिल किया जा रहा है। सबसे ज्यादा खतरनाक बीटल नट है। इसे आम भाषा में सुपारी कहते हैं। डब्ल्यूएचओ ने सुपारी को कैंसर का कारण बनने वाले पदार्थ के रूप में क्लासीफाइड किया है, जिसका मुंह और गले के कैंसर से सीधा संबंध है।
 3. जर्नल ऑफ द अमेरिकन डेंटल एसोसिएशन की रिपोर्ट के अनुसार सुपारी खाने वालों में सबम्यूकस फाइब्रोसिस का खतरा बढ़ जाता है, जो जबड़े के मूवमेंट को रोकने और मुंह में अकड़न का कारण बनता है। लंबे समय तक सुपारी के इस्तेमाल से दांतों का रंग बदल जाता है। साथ ही, दांत कमजोर भी हो जाते हैं।
 4. अमेरिकन सोसायटी फॉर क्लीनिकल न्यूट्रिशन के मुताबिक, एक रिसर्च में सुपारी और हृदय रोग, मेटाबॉलिक सिंड्रोम व मोटापे के बीच संबंध पाया गया है।

 ज्योतिषीय उपचारों के लिए यज्ञ में वनस्पति का इस्तेमाल बताया गया है। वेदों और पुराणों के अनुसार ग्रह शांति का सबसे सशक्त माध्यम यज्ञ है। यज्ञाग्रि प्रज्वलित रखने के लिए प्रयोग किए जाने वाले काष्ठ को समिधा कहते हैं। आह्निक, सूत्रावली में ढाक, फल्गु, वट, पीपल, विकंकल, गूलर, चंदन, सरल, देवदारू, शाल, खैर का विधान है। वायु पुराण में ढाक, काकप्रिय, बड़, पिलखन, पीपल, विकंकत, गूलर, बेल, चंदन, पीतदारू, शाल, खैर को यज्ञ के लिए उपयोगी माना गया है। सूर्य के लिए अर्क, चंद्र के लिए ढाक, मंगल के लिए खैर, बुध के लिए अपामार्ग, गुरु के लिए पीपल, शुक्र के लिए गूलर, शनि के लिए शमी और राहु के लिए दूर्वा व केतू के लिए कुश वनस्पतियों को उपचार का आधार बनाया जाता है। मृगशिरा नक्षत्र की शांति के लिये भी खदिर की समिधा का उपयोग होता है।

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