आचमन
आचमन क्या है इस विषय में शास्त्रों में इस प्रकार बतलाया गया है-आचमन की विधि यह है कि हाथ-पाँव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर पूर्व अथवा उत्तर की ओर मुख करके बैठे। दाहिने हाथ को जानू अर्थात घुटने के भीतर रखकर दोनों चरण बराबर रखे तथा शिखा में ग्रन्थि लगाये और फिर उष्णता एवं फेन से रहित शीतल एवं निर्मल जल से आचमन करे। खड़े-खड़े, बात करते, इधर-उधर देखते हुए, शीघ्रता से और क्रोधयुक्त होकर, आचमन न करे।
दाहिने हाथ में पाँच तीर्थ कहे गये हैं – (१) देवतीर्थ, (२) पितृतीर्थ, (३) ब्राह्मतीर्थ, (४) प्राजापत्यतीर्थ और (५) सौम्यतीर्थ। अब आप इनके लक्षणों को सुने – अँगूठे के मूल में ब्राह्मतीर्थ, कनिष्ठा के मूल में प्राजापत्यतीर्थ, अङ्गुष्ठ के बीच में पितृतीर्थ और हाथ के मध्य-भाग में सौम्यतीर्थ कहा जाता हैं, जो देवकर्म से प्रशस्त माना गया है।
ब्राह्म तीर्थं वदन्त्येतद्वसिष्ठाद्या द्विजोत्तमाः । कायं कनिष्ठिकामूले अङ्गुल्यग्रे तु दैवतम् ॥
तर्जन्यअङ्गुष्ठयोरन्तः पित्र्यं तीर्थमुदाहृतम् । करमध्ये स्थितं सौम्यं प्रशस्तं देवकर्मणि ॥" (भविष्य पुराण, ब्राह्मपर्व ३।६३-६५)
"मैत्र्यं मूले प्रदेशिन्याः कनिष्ठायाः प्रजापते ।
ब्राह्मयमङ्गुष्ठमूलस्थे तीर्थ दैवं कराग्रतः ।।
सव्यपाणितले वह्रेस्तीर्थ सोमस्य वामतः ।
ऋषीणां तु समग्रेषु अङ्गुलीपर्वसन्धीषु ।।" (अग्निपुराण ७२।३२-३३)
देवार्चा, ब्राह्मण को दक्षिणा आदि कर्म देवतीर्थ से; तर्पण, पिण्डदानादि कर्म पितृतीर्थ से; आचमन ब्राह्मतीर्थ से; विवाह के समय लाजा-होमादि और सोमपान प्राजापत्यतीर्थ से; कमण्डलु-ग्रहण, दधि-प्राशनादि कर्म सौम्यतीर्थ से करे। ब्राह्मतीर्थ से उप-स्पर्शन सदा श्रेष्ठ माना गया है।
अङ्गुलियों को मिलाकर एकाग्रचित्त हो, पवित्र जल से विना शब्द किये तीन बार आचमन करने से महान् फल होता है और देवता प्रसन्न होते हैं। प्रथम आचमन से ऋग्वेद, द्वितीय से यजुर्वेद और तृतीय से सामवेद की तृप्ति होती है तथा आचमन करके जल-युक्त दाहिने अँगूठे से मुख का स्पर्श करने से अथर्ववेद की तृप्ति होती है। ओष्ठ के मार्जन से इतिहास और पुराणों की तृप्ति होती है। मस्तक में अभिषेक करने से भगवान रुद प्रसन्न होते है। शिखा के स्पर्श से ऋषिगण, दोनों आँखों के स्पर्श से सूर्य, नासिका के स्पर्श से वायु, कानों के स्पर्श से दिशाएँ, भुजा के स्पर्श से यम, कुबेर, वरुण, इन्द्र तथा अग्निदेव तृप्त होते हैं। नाभि और प्राणों की ग्रंथियों के स्पर्श करने से सभी तृप्त हो जाते है। पैर धोने से विष्णुभगवान्, भूमि में जल छोड़ने से वासुकि आदि नाग तथा बीच में जो जलबिन्दु गिरते है, उनसे चार प्रकार के भूतग्राम की तृप्ति होती है।
अङ्गुष्ठ और तर्जनी से नेत्र, अङ्गुष्ठ तथा अनामिका से नासिका, अङ्गुष्ठ एवं मध्यमा से मुख, अङ्गुष्ठ और कनिष्ठका से कान, सब अङ्गुलियों से सिर का स्पर्श करना चाहिये। अङ्गुष्ठ अग्निरूप है, तर्जनी वायुरूप, मध्यमा प्रजापति रूप, अनामिका सूर्य रूप और कनिष्ठिका इन्द्र रुप है।
"अङ्गुष्ठोऽग्निर्महाबाहो प्रोक्तो वायुः प्रदेशिनी ॥
अनामिका तथा सूर्यः कनिष्ठा मघवा विभो । प्रजापतिर्मध्यमा ज्ञेया तस्माद् भरतसत्तम ॥" (ब्राह्मपर्व ३।८४-८५)
इस विधि से आचमन करने पर सम्पूर्ण जगत्, देवता और लोक तृप्त हो जाते हैं।
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प्रार्थना, दर्शन, पूजा, यज्ञ आदि आरंभ करने से पूर्व शुद्धि के लिए मंत्र पढ़ते हुए जल पीना ही आचमन कहलाता है। इससे मन और हृदय की शुद्धि होती है। आचमनी का अर्थ एक छोटा तांबे का लोटा और तांबे की चम्मच को आचमनी कहते हैं। छोटे से तांबे के लोटे में जल भरकर उसमें तुलसी डालकर हमेशा पूजा स्थल पर रखा जाता है। यह जल आचमन का जल कहलाता है। इस जल को तीन बार ग्रहण किया जाता है।
आचमन की विधि यह है कि लाँग लगाकर, शिखा बाँधकर, उपवीती होकर और बैठकर तीन बार आचमन करना चाहिये ।
निबद्धशिखकच्छस्तु द्विज आचमनं चरेत् ।
कृत्वोपवीतं सव्येंऽसे वाङ्मनः कायसंयतः ।। (वृहत्पराशर)
हाथ-पांव धोकर पवित्र स्थान में आसन के ऊपर उत्तर, ईशान या पूर्व की ओर मुख करके बैठें। दक्षिण और पश्चिम की ओर मुख करके आचमन न करें। दाहिने हाथ को जानु के अंदर रखकर दोनों पैरों को बराबर रखें। फिर जल का आचमन करें। आचमन के लिए जल की मात्रा - जल इतना लें कि ब्राह्मण के हृदय तक, क्षत्रिय के कण्ठ तक, वैश्य के तालु तक तथा शुद्र तथा महिलाओं के जीभ तक पहुँच जाय।
हृत्कण्ठतालुगाभिस्तु यथासंख्यं द्विजातयः ।
शुध्येरन् स्त्री च शूद्रश्च सकृत्स्पृष्टाभिरन्ततः ।। (याज्ञवल्क्यस्मृति, आचारध्याय, श्लोक २१)
अब हथेली को मोड़कर गाय के कान की तरह बना लें कनिष्ठिका व अङ्गुष्ठ को
अलग रखें। शेष अँगुलियों को सटाकर ब्राह्मतीर्थ से -
आयतं पूर्वतः कृत्वा गोकर्णाकृतिवत् करम् ।
संहताङ्गुलिना तोयं गृहीत्वा पाणिना द्विजः ।
मुक्ताङ्गुष्ठनिष्ठेन शेषेणाचमनं चरेत् ।। (आचाररत्न, पृ॰ १६ में भरद्वाज, दे॰भा॰ ११।१६।२७) निम्नलिखित एक-एक मन्त्र बोलते हुए आचमन करें, जिसमें आवाज न हो।
ॐ केशवाय नम: ।
ॐ नाराणाय नम: ।
ॐ माधवाय नम: । आचमन के बाद ॐ हृषीकेशाय नम:, बोलकर ब्राह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। फिर अँगुठे से नाक, आँखों और कानों का स्पर्श करें। छींक आने पर, थूकने पर, सोकर उठने पर, वस्त्र पहनने पर, अश्रु गिरने पर आचमन करे अथवा दाहिने कान के स्पर्श मात्र से भी आचमन की विधि पूर्ण मानी जाती है।
आयतं पूर्वतः कृत्वा गोकर्णाकृतिवत् करम् ।
संहताङ्गुलिना तोयं गृहीत्वा पाणिना द्विजः ।
मुक्ताङ्गुष्ठनिष्ठेन शेषेणाचमनं चरेत् ।। (आचाररत्न, पृ॰ १६ में भरद्वाज, दे॰भा॰ ११।१६।२७) निम्नलिखित एक-एक मन्त्र बोलते हुए आचमन करें, जिसमें आवाज न हो।
ॐ केशवाय नम: ।
ॐ नाराणाय नम: ।
ॐ माधवाय नम: । आचमन के बाद ॐ हृषीकेशाय नम:, बोलकर ब्राह्मतीर्थ (अंगुष्ठ का मूल भाग) से दो बार होंठ पोंछते हुए हस्त प्रक्षालन करें (हाथ धो लें)। फिर अँगुठे से नाक, आँखों और कानों का स्पर्श करें। छींक आने पर, थूकने पर, सोकर उठने पर, वस्त्र पहनने पर, अश्रु गिरने पर आचमन करे अथवा दाहिने कान के स्पर्श मात्र से भी आचमन की विधि पूर्ण मानी जाती है।
आचमन मुद्रा : शास्त्रों में कहा गया है कि त्रिपवेद आपो गोकर्णवरद् हस्तेन
त्रिराचमेत्। यानी आचमन के लिए बाएं हाथ की गोकर्ण मुद्रा ही होनी चाहिए तभी यह
लाभदायी रहेगा। गोकर्ण मुद्रा बनाने के लिए दर्जनी को मोड़कर अंगूठे से दबा दें। उसके
बाद मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को परस्पर इस प्रकार मोड़ें कि हाथ की आकृति गाय
के कान जैसी हो जाए।
"शौच ईपसु: सर्वदा आचामेद एकान्ते प्राग उदड़्ग मुख:" (मनुस्मृति)
अर्थात् जो पवित्रता की कामना रखता है उसे एकान्त में आचमन अवश्य करना चाहिए। 'आचमन' कर्मकांड की सबसे जरूरी विधि मानी जाती है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि- नींद से जागने के बाद, भूख लगने पर, भोजन करने के बाद, छींक आने पर, असत्य भाषण होने पर, पानी पीने के बाद, और अध्ययन करने के बाद आचमन जरूर करें।
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