Saturday, December 8, 2018

मनसा देवी


मनसा देवी
मनसा देवी को भगवान शिव की मानस पुत्री के रूप में पूजा जाता है। इनका प्रादुर्भाव मस्तक से हुआ है इस कारण इनका नाम मनसा पड़ा। इनके पति जगत्कारु तथा पुत्र आस्तिक जी हैं। इन्हें नागराज वासुकी की बहन के रूप में पूजा जाता है, प्रसिद्ध मंदिर एक शक्तिपीठ पर हरिद्वार में स्थापित है। ( मनसा देवी नागों की देवी हैं, उनका मुख्य मंदिर हरिद्वार में है जो शक्तिपीठ पर स्थापित है। नवरात्रि को यहाँ बहुत भीड़ लगती है तथा तीर्थ के साथ ही यह पर्यटन स्थल भी है जो मन में शांति का अनुभव कराने वाला है।) इन्हें शिव की मानस पुत्री माना जाता है परंतु कई पुरातन धार्मिक ग्रंथों में इनका जन्म कश्यप के मस्तक से हुआ हैं, ऐसा भी बताया गया है।[मनसा को शिव की मानसपुत्री मानते हैं तथा कुछ लोग इन्हें कश्यप पुत्री भी मानते हैं।] कुछ ग्रंथों में लिखा है कि वासुकि नाग द्वारा बहन की इच्छा करने पर शिव नें उन्हें इसी कन्या का भेंट दिया और वासुकि इस कन्या के तेज को न सह सका और नागलोक में जाकर पोषण के लिये तपस्वी हलाहल को दे दिया।[हलाहल पूर्व में दैत्य था जिसने शिव की तपस्या कर शिवांश द्वारा मृत्यु प्राप्ति का वर माँगा।] इसी मनसा नामक कन्या की रक्षा के लिये हलाहल नें प्राण त्यागा।





महाभारत में मनसा
पाण्डुवंश में पाण्डवों में से एक धनुर्धारी अर्जुन और उनकी द्वितीय पत्नी सुभद्रा जो श्री कृष्ण की बहन हैं, उनके पुत्र अभिमन्यु हुआ जो महाभारत के युद्ध में मारा गया। अभिमन्यु का पुत्र परीक्षित हुआ, जिसकी मृत्यु तक्षक सर्प के काटने से हुई। परीक्षित पुत्र जन्‍मेजय ने अपने छ: भाइयों के साथ प्रतिशोध में सर्प जाति के विनाश के लिये सर्पेष्ठी यज्ञ किया। वासुकी ने अपनी बहन मनसा का विवाह किया तथा उसके पुत्र आस्तिक नें सर्पों को यज्ञ से बचाया।

राजा युधिष्ठिर ने भी माता मानसा की पूजा की थी जिसके फल स्वरूप वह महाभारत के युद्ध में विजयी हुए। जहाँ युधिष्ठिर ने पूजन किया वहाँ सालवन गाँव में भव्य मंदिर का निर्माण हुआ।

मंगलकाव्य
मंगलकाव्य बंगाल में 13वीं तथा 18वीं शताब्दी में लिखित काव्य है जो कई देवताओं के संदर्भ में लिखित हैं। विजयगुप्त का मनसा मंगल काव्य और विप्रदास पिल्ले का मनसाविजय (1495) मनसा के जन्म का वृत्तांत बताते हैं।
मनसाविजय के अनुसार वासुकि नाग की माता नें एक कन्या की प्रतिमा का निर्माण किया जो शिव वीर्य से स्पर्श होते ही एक नागकन्या बन गई, जो मनसा कहलाई। जब शिव ने मनसा को देखा तो वे मोहित हो गए, तब मनसा ने बताया कि वह उनकी बेटी है, शिव मनसा को लेकर कैलाश गए। माता पार्वती नें जब मनसा को शिव के साथ देखा तब चण्डी रूप धारण कर मनसा के एक आँख को अपने दिव्य नेत्र तेज से जला दिया। मनसा ने ही शिव को हलाहल विष से मुक्त किया था।
माता पार्वती ने मनसा का विवाह भी खराब किया, मनसा को सर्पवस्त्र पहनने को कहकर कक्ष में एक मेंढक डाल दिया। जगत्कारु भाग गये थे, बाद में जगत्कारु तथा मनसा से आस्तिक का जन्म हुआ।

ब्रह्म वैवर्त पुराण, प्रकृतिखण्ड : अध्याय 46 के अनुसार "भगवान नारायण कहते हैं– नारद! आगमों के अनुसार देवी षष्ठी और मंगलचण्डिका का उपाख्यान कह चुका। अब मनसादेवी का चरित्र, जो धर्म के मुख से मैं सुन चुका हूँ, तुमसे कहता हूँ, सुनो। ये भगवती कश्यप जी की मानसी कन्या हैं तथा मन से उद्दीप्त होती हैं, इसलिये ‘मनसा देवी’ के नाम से विख्यात हैं। आत्मा में रमण करने वाली इन सिद्धयोगिनी वैष्णव देवी ने तीन युगों तक परब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण की तपस्या की है। गोपीपति परम प्रभु उन परमेश्वर ने इनके वस्त्र और शरीर को जीर्ण देखकर इनका ‘जरत्कारु’ नाम रख दिया। साथ ही, उन कृपानिधि ने कृपापूर्वक इनकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण कर दीं, इनकी पूजा का प्रचार किया और स्वयं भी इनकी पूजा की। स्वर्ग में, ब्रह्मलोक में, भूमण्डल में और पाताल में– सर्वत्र इनकी पूजा प्रचलित हुई। सम्पूर्ण जगत में ये अत्यधिक गौरवर्णा, सुन्दरी और मनोहारिणी हैं; अतएव ये साध्वी देवी ‘जगद्गौरी’ के नाम से विख्यात होकर सम्मान प्राप्त करती हैं। भगवान शिव से शिक्षा प्राप्त करने के कारण ये देवी ‘शैवी’ कहलाती हैं। भगवान विष्णु की ये अनन्य उपासिका हैं। अतएव लोग इन्हें ‘वैष्णवी’ कहते हैं। राजा जनमेजय के यज्ञ में इन्हीं के सत्प्रयत्न से नागों के प्राणों की रक्षा हुई थी, अतः इनका नाम ‘नागेश्वरी’ और ‘नागभगिनी’ पड़ गया। विष का संहार करने में परम समर्थ होने से इनका एक नाम ‘विषहरी’ है। इन्हें भगवान शंकर से योगसिद्धि प्राप्त हुई थी। अतः ये ‘सिद्धयोगिनी’ कहलाने लगीं। इन्होंने शंकर से महान गोपनीय ज्ञान एवं मृत संजीवनी नामक उत्तम विद्या प्राप्त की है, इस कारण विद्वान पुरुष इन्हें ‘महाज्ञानयुता’ कहते हैं। ये परम तपस्विनी देवी मुनिवर आस्तीक की माता हैं। अतः ये देवी जगत में सुप्रतिष्ठित होकर ‘आस्तीकमाता’ नाम से विख्यात हुई हैं। जगत्पूज्य योगी महात्मा मुनिवर जरत्कारु की प्यारी पत्नी होने के कारण ये ‘जरत्कारुप्रिया’ नाम से विख्यात हुईं।"

|| मनसादेवी स्तोत्रम् || 

।। ध्यानः ।। 
चारु-चम्पक-वर्णाभां, सर्वांग-सु-मनोहराम् ।
नागेन्द्र-वाहिनीं देवीं, सर्व-विद्या-विशारदाम् ।।

।। मूल-स्तोत्र ।।
।। श्रीनारायण उवाच ।।
नमः सिद्धि-स्वरुपायै, वरदायै नमो नमः । 
नमः कश्यप-कन्यायै, शंकरायै नमो नमः ।।

बालानां रक्षण-कर्त्र्यै, नाग-देव्यै नमो नमः । 
नमः आस्तीक-मात्रे ते, जरत्-कार्व्यै नमो नमः ।।

तपस्विन्यै च योगिन्यै, नाग-स्वस्रे नमो नमः । 
साध्व्यै तपस्या-रुपायै, शम्भु-शिष्ये च ते नमः ।।


।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं लक्ष्मि ! मनसाया स्तवं महत् । 
यः पठति नित्यमिदं, श्रावयेद् वापि भक्तितः ।।

न तस्य सर्प-भीतिर्वै, विषोऽप्यमृतं भवति । 
वंशजानां नाग-भयं, नास्ति श्रवण-मात्रतः ।।



।। मनसादेवी स्तोत्रम् ।।

देवी त्वां स्तोतुमिच्छामि सा विनां प्रवरा परम् ।
‎परात्परां च परमां नहि स्तोतुं क्षयोsधुना ।। १ ।।

स्तोत्राणां लक्षणं वेदे स्वभावाव्यानत: परम् ।
‎न क्षम: प्रकृति वक्तुं गुणानां तब सुव्रते ।। २ ।।

शुद्रसत्वस्वरुपा त्वम् कोपहिंसाविवर्जिता ।
‎न च सप्तो मुनिस्तेन त्यक्तया च त्वया यत: ।। ३ ।।

त्वं मया पूजिता साध्वी जननी च यथाsदिति: ।
‎दयारुपा च भगिनी क्षमारुपा यथा प्रसु: ।। ४ ।।

त्वया मे रक्षिता: प्राणा: पुत्रदारा सुरेश्वरी ।
‎अहं करोमि त्वां पूज्यां मम प्रीतिश्छ वर्धते ।। ५ ।।

नित्यं यद्यपि पूज्यां त्वां भवेsत्र जगदम्बिके ।
‎तथाsपि तव पूजां वै वर्धयामि पुन: पुन: ।। ६ ।।

ये त्वयाषाढसङ्क्रान्त्या पूजयिष्यन्ति भक्तित: ।
‎पञ्चम्यां मनसारव्या यां मासान्ते दिने दिने ।। ७ ।।

पुत्रपौत्रादयस्तेषां वर्धन्ते न धनानि च ।
‎यशस्विन: कीर्तिमन्तो विद्यावन्तो गुणान्विता: ।। ८ ।।

ये त्वां न पूजयिष्यन्ति निन्दन्त्यज्ञानतो जना: ।
‎लक्ष्मी हीना भविष्यन्ति तेषां नागभयं सदा ।। ९ ।।

त्वं स्वर्गलक्ष्मी: स्वर्गे च वैकुण्ठे कमलाकला ।
‎नारायणांशो भगवन् जरत्कारुर्मुनीश्वर: ।। १० ।।

तपसा तेजसा त्वं च मनसा ससृजे पिता ।
‎अस्माकं रक्षणायैव तेन त्वं मनसाभिदा ।। ११ ।।

मनसादेवी त्वं शक्त्या चाssत्मना सिद्धयोगिनी ।
‎तेन त्वं मनसादेवी पूजिता वन्दिता भवे ।। १२ ।।

यां भक्त्या मनसा देवा: पूजयन्त्यंनिशं भृशम् ।
‎तेन त्वं मनसादेवीं प्रवदन्ति पुराविद: ।। १३ ।।

सत्त्वरुपा च देवी त्वं शश्वत्सर्वानषेवया ।
‎यो हि यद्भावयेन्नित्यं शतं प्राप्नोति तत्समम् ।। १४ ।।

इदं स्तोत्रं पुण्यवीजं तां संपूज्य च य: पठेत् ।
‎तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भवस्य च ।। १५ ।।

विषं भवेत्सुधातुल्य सिद्धस्तोत्रं यदा पठेत् ।
‎पञ्चलक्ष जपेनैव सिद्ध्यस्तोत्रो भवेन्नर ।।
‎सर्पशायी भवेत्सोsपि निश्चितं सर्ववाहन: ।। १६ ।।
।। इति महेन्द्रकृतं मनसादेवीस्तोत्रं समसम्पूर्णम् ।।



।। अथ मनसा द्वादशनाम स्तोत्रम् ।।

ॐ नमो मनसायै 

जरत्कारु जगद्गौरी मनसा सिद्धयोगिनी ।
‎वैष्णवी नागभगिनी शैवी नागेश्वरी तथा ।। १ ।।

जरत्कारुप्रियाssस्तीकमाता विषहरीती च ।
‎महाज्ञानयुता चैव सा देवी विश्वपूजिता ।। २ ।।

द्वादशैतानि नामानि पूजाकाले च य: पठेत् ।
‎तस्य नागभयं नास्ति तस्य वंशोद्भस्य च ।। ३ ।।

नागभीते च शयने नागग्रस्ते च मन्दिरे ।
‎नागभीते महादुर्गे नागवेष्ठितविग्रहे ।। ४ ।।

इदं स्तोत्रं पठित्वा तु मुञ्चते नात्रसंशय: ।
‎नित्यं पठेद् य: तं दृष्ट्वा नागवर्ग: पलायते ।। ५ ।।

नागौधं भूषणं कृत्वा स भवेत् नागवाहना: ।
‎नागासनो नागतल्पो महासिद्धो भवेन्नर: ।। ६ ।।
।। इति मनसादेवीद्वादशनाम स्तोत्र सम्पूर्णम् ।।


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