Wednesday, December 5, 2018

अशून्यशयनव्रत

अशून्यशयनव्रत
( भविष्यपुराण ) 

यह श्रावण कृष्ण द्वितीयासे मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया पर्यन्त किया जाता है । इसमें पूर्वाविद्धा तिथि ली जाती है । यदि दो दिन दो दिन पूर्वविद्धा हो या दोनों दिन न हो तो पराविद्धा लेनी चाहिये । इसमें शेष-शय्यापर लक्ष्मी सहित नारायण शयन करते हैं, इसी कारण इसका नाम "अशून्यशयन" है । यह प्रसिद्ध है कि देवशयनी से देवप्रबोधिनी तक भगवान शयन करते हैं । साथ ही यह भी प्रसिद्ध है कि इस अवधि में देवता सोते हैं और शास्त्र से यही सिद्ध होता है कि द्वादशी को भगवान्, त्रयोदशी के काम, चतुर्दशी को यक्ष, पूर्णिमा को शिव, प्रतिपदा को ब्रह्मा, द्वितीया को विश्वकर्मा और तृतीया को उमा का शयन होता है ।
व्रती को चाहिये कि श्रावण कृष्ण द्वितीया को प्रातःस्त्रानादि करके श्रीवत्स-चिह्नसे युक्त चार भुजाओं से भूषित शेषशय्या पर स्थित और लक्ष्मी सहित भगवान का गन्ध - पुष्पादि से पुजन करे ।
दिन भर मौन रहे । व्रत रखे और सायंकाल पुनः स्त्रान करके भगवान का शयनोत्सव मनावे । फिर चन्द्रोदय होने पर अर्घ्यापात्र में जल, फल, पुष्प और गन्धाक्षत रखकर ' गगनाङ्गणसंदीप क्षीराब्धिमथनोद्भव । भाभासितदिगाभोग रमानुज नमोऽस्तु ते ॥' ( पुराणान्तर ) - इस मन्त्र से अर्घ्य दे और भगवान को प्रणाम करके भोजन करे ।
इस प्रकार प्रत्येक कृष्ण द्वितीया को करके मार्गशीर्ष कृष्ण तृतीया को उस ॠतुमें होनेवाले ( आम, अमरुद और केले आदि ) मीठे फल सदाचारी ब्राह्मण को दक्षिणा-सहित दे । करोंदे, नीबू आदि खट्टे तथा इमली, कैरी, नारंगी, अनार आदि स्त्री-नाम के फल न दे ।
इस व्रत से व्रती का गृह-भंग नहीं होता - दाम्पत्य-सुख अखण्ड रहता है । यदि स्त्री करे तो वह सौभाग्यवती होती है ।


अशून्य शयन व्रत का हिन्दू धर्म में एक विशेष महत्त्व है। भविष्य पुराण के अनुसार अशून्य शयन व्रत (Ashunya shayan Vrat) श्रावण कृष्ण पक्ष के दूसरे दिन रखा जाता है। चातुर्मास के चार महीनों के दौरान हर माह के कृष्ण पक्ष की द्वितीया को यह व्रत किया जाता है। फल द्वितीया या अशून्यशयन व्रत को श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की द्वितीया तिथि से प्रारम्भ करना चाहिये और चार महीने तक प्रत्येक द्वितीया तिथि को व्रत तथा पूजन करना चाहिये अर्थात् श्रावण मास कृष्ण द्वितीया तिथि से लेकर मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया तिथि तक पति-पत्नी को एक साथ यह व्रत करना चाहिये ।
 विष्णुधर्मोत्तर के पृष्ठ- 71, मत्स्य पुराण के पृष्ठ- 2 से 20 तक, पद्मपुराण के पृष्ठ-24, विष्णुपुराण के पृष्ठ- 1 से 19 आदि में अशून्य शयन व्रत का उल्लेख मिलता है। इसमे शेषशय्या पर शयन करते हुए लक्ष्मी सहित विष्णु का पूजन होने के कारण इसे अशून्य शयन कहा जाता है।
 अशून्य शयन द्वितीया का अर्थ है- बिस्तर में अकेले न सोना पड़े। जिस प्रकार स्त्रियां अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिये करवाचौथ का व्रत करती हैं, ठीक उसी तरह पुरूषों को अपने जीवनसाथी की लंबी उम्र के लिये यह व्रत करना चाहिए। क्योंकि जीवन में जितनी जरूरत एक स्त्री को पुरुष की होती है, उतनी ही जरूरत पुरुष को भी स्त्री की होती है।
 हेमाद्रि और निर्णयसिन्धु के अनुसार अशून्य शयन द्वितिया का यह व्रत पति-पत्नी के रिश्तों को बेहतर बनाने के लिये बेहद अहम है। यह व्रत रिश्तों की मजबूती को बरकरार रखने में मदद करता है। कहते हैं जो भी इस व्रत को करता है, उसके दाम्पत्य जीवन में कभी दूरी नहीं आती। साथ ही घर-परिवार में सुख-शांति तथा सौहार्द्र बना रहता है।
 इस व्रत में लक्ष्मी तथा श्री हरि, यानी विष्णु जी का पूजन करने का विधान है। वस्तुतः शास्त्रों के अनुसार चातुर्मास के दौरान भगवान विष्णु का शयनकाल होता है और इस अशून्य शयन व्रत के माध्यम से शयन उत्सव मनाया जाता है। कहते हैं जो भी इस व्रत को करता है, उसके दाम्पत्य जीवन में कभी दूरी नहीं आती। साथ ही घर-परिवार में सुख-शांति तथा सौहार्द्र बना रहता है। अतः गृहस्थ पति को यह व्रत अवश्य करना चाहिए। इस व्रत में किस प्रकार भगवान की प्रार्थना करनी चाहिए।
 लक्ष्म्या न शून्यं वरद यथा ते शयनं सदा।
 शय्या ममाप्य शून्यास्तु तथात्र मधुसूदन।।
 अर्थात् हे वरद, जैसे आपकी शेषशय्या लक्ष्मी जी से कभी भी सूनी नहीं होती, वैसे ही मेरी शय्या अपनी पत्नी से सूनी न हो, यानी मैं उससे कभी अलग ना रहूं, ऐसी प्रार्थना करनी चाहिए।
 आज के दिन इस व्रत में शाम के समय चन्द्रोदय होने पर अक्षत, दही और फलों से चन्द्रमा को अर्घ्य दिया जाता है और अर्घ्य देने के बाद व्रत का पारण किया जाता है। फिर अगले दिन, यानी तृतीया को, यानी कल के दिन किसी ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और उनका आशीर्वाद लेकर उन्हें कोई मीठा फल देना चाहिए। इस प्रकार व्रत आदि करने से आपके जीवनसाथी पर आने वाली सारी मुसीबतों से आपको छुटकारा मिलता है।

 इसकी कथा इस प्रकार है। कथा: एक समय राजा रुक्मांगद ने जन रक्षार्थ वन में भ्रमण करते-करते महर्षि वामदेवजी के आश्रम पर पहुंच महर्षि के चरणों में साष्टांग दंडवत् प्रणाम किया। राजा ने कहा, ‘महात्मन! आपके युगल चरणारविंदों का दर्शन करके मैंने समस्त पुण्य कर्मों का फल प्राप्त कर लिया।’ वामदेव जी ने राजा का विधिवत सत्कार कर कुशल क्षेम पूछी। तब राजा रुक्मांगद ने कहा- ‘भगवन ! मेरे मन में बहुत दिनों से एक संशय है। मैं उसी के विषय में आपसे पूछता हूं, क्योंकि आप सब संदेहों का निवारण करने वाले ब्राह्मण शिरोमणि हैं। मुझे किस सत्कर्म के फल से त्रिभुवन सुंदर पत्नी प्राप्त हुई है, जो सदा मुझे अपनी दृष्टि से कामदेव से भी अधिक सुंदर देखती है। परम सुंदरी देवी संध्यावली जहां-जहां पैर रखती हैं, वहां-वहां पृथ्वी छिपी हुई निधि प्रकाशित कर देती है। वह सदा शरद्काल के चंद्रमा की प्रभा के समान सुशोभित होती है। विप्रवर ! बिना आग के भी वह षड्रस भोजन तैयार कर लेती है और यदि थोड़ी भी रसोई बनाती है तो उसमें करोड़ों मनुष्य भोजन कर लेते हैं। वह पतिव्रता, दानशीला तथा सभी प्राणियों को सुख देने वाली है। उसके गर्भ से जो पुत्र उत्पन्न हुआ है, वह सदा मेरी आज्ञा के पालन में तत्पर रहता है। द्विजश्रेष्ठ ! ऐसा लगता है, इस भूतल पर केवल मैं ही पुत्रवान हूं, जिसका पुत्र पिता का भक्त है और गुणों के संग्रह में पिता से भी बढ़ गया है। वह बड़ा ही वीर, पराक्रमी, साहसी, शत्रु राजाओं को परास्त करने वाला है। उसने सेनापति होकर छः माह तक युद्ध किया और शत्रुपक्ष के सैनिकों को जीतकर सबको अस्त्रहीन कामनाओं को प्राप्त किया।

 उपाय
 * भगवान लक्ष्मीनारायण के चित्र या मूर्ति पर पीपल के पत्तों की माला चढ़ाएं।
 * लक्ष्मी जी के मंदिर में सौंदर्य प्रसाधन चढ़ाएं।
 * सिक्के पर इत्र लगाकर लक्ष्मी मंदिर में चढ़ाएं।
 * लक्ष्मी मंदिर में चमेली का इत्र चढ़ाएं।
 * मीठी चुरी बनाकर पति-पत्नी मिलकर पक्षियों को डालें।

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