Wednesday, December 5, 2018

शची (इन्द्राणी)


शची (इन्द्राणी)
इन्द्राणी देवताओं के राजा इन्द्र की पत्नी हैं। इन्द्राणी असुर पुलोमा की पुत्री थीं, जिनका वध इन्द्र के हाथों हुआ था। ऋग्वेद की देवियों में इन्द्राणी का स्थान प्रधान हैं। ये इन्द्र को शक्ति प्रदान करने वाली और स्वयं अनेक ऋचाओं की ऋषि है। शालीन पत्नी की यह मर्यादा और आदर्श हैं और गृह की सीमाओं में उसकी अधिष्ठात्री हैं। द्रौपदी इन्हीं के अंश से उत्पन्न हुई थीं और ये स्वयं प्रकृति की अन्यतम कला से जन्मी थीं। जयंत (शास्त्रानुसार इन्द्राणी वैशाख शुक्ल पक्ष तृतीया 'गौरी (अक्षय) तृतीया' के व्रत के पुण्य-प्रताप से जयंत नामक पुत्र की मां बनी। ( भविष्यपुराण, ब्राह्मपर्व, अध्याय २१) यह जयन्त वही है, जिसने कौवे के रुप में माता सीता के पैरों में अपनी चोंच मारी थी तथा भगवान् श्रीराम ने तृण से उसको एक आँख का बना दिया था) शची के ही पुत्र थे और पुत्री का नाम जयिनी था।। शची को 'इन्द्राणी' , 'ऐन्द्री', 'महेन्द्री', 'पुलोमजा', 'पौलोमी' आदि नामों से भी जाना जाता है। मेरुगिरि के शिखर अमरावती नामवाली एक रमणीय पुरी है। उसे पूर्वकाल में विश्वकर्मा ने बनाया था। उस पुरी में देवताओं द्वारा सेवित इन्द्र अपनी साध्वी पत्‍नी शची के साथ निवास करते थे।
अपने कार्य क्षेत्र में इन्द्राणी विजयिनी और सर्वस्वामिनी हैं और अपनी शक्ति की घोषणा वह ऋग्वेद के मंत्र में करती हैं- ऋग्वेद के एक अत्यन्त सुन्दर और 'शक्तिसूक्त' में वह कहती हैं कि "मैं असपत्नी हूँ, सपत्नियों का नाश करने वाली हूँ, उनकी नश्यमान शालीनता के लिए ग्रहण स्वरूप हूँ, उन सपत्नियों के लिए, जिन्होंने मुझे कभी ग्रसना चाहा था।" उसी सूक्त में वह कहती हैं कि "मेरे पुत्र शत्रुहंता हैं और मेरी कन्या महती है"- 'मम पुत्रा: शत्रुहणोऽथो मम दुहिता विराट्।'

अपने विवाह के पूर्व शची ने शंकर से सुंदर पति, स्वेच्छामत रूप तथा सुख एवं आयु का वरदान माँगा था। ऋग्वेद में शची रचित कुछ सूक्त हैं जिनमें सपत्नी का नाश करने के लिए प्रार्थना की गई है (ऋचा, 10-159)। कुछ विद्वानों के मत से सूक्त बहुत बाद की रचनाएँ हैं।


वृत्रासुर त्वष्टा ऋषि का यज्ञ-पुत्र था। देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर का वध कर दिया। इन्द्र पर ब्रह्महत्या का दोष लगा। वह जान बचाने के लिए मानसरोवर के जल में जा छिप गये जिससे कि वे इस बीच दोष से छुटकारा पाने का कुछ उपाय कर सकें। उनको इसी स्थिति में बहुत समय हो गया। इन्द्र से विहीन स्वर्ग में अराजकता फैल गयी। अनेक प्रकार के संकट उत्पन्न होने लगे। देवताओं को बड़ी चिन्ता हुई। उस समय भूतल में परम पराक्रमी और धर्मात्मा राजा नहुष राज करते थे। हर प्रकार से विचार करने के बाद राजा नहुप को बुलाया गया और वास्तविक इन्द्र न मिलने तक अस्थायी रूप से इन्द्र के पद पर बैठा दिया गया। इन्द्र पद क्या मिला, नहुष पर तो जैसे राजमद ही हावी हो गया। वे विषय भोगों से आसक्त हो गये तथा उनमें अनेकानेक अवगुण भी समाहित हो गये। नहुष ने इन्द्र की पत्नी शची के रूप-सौंर्दय की चर्चा सुन रखी थी। वे शची को प्राप्त करने के इच्छुक हो गये। शची को जैसे ही इसका पता चला तो वह गुरू बृहस्पति जी की शरण में चली गयी। यह जानकर की शची बृहस्पति जी की शरण में है, नहुष को अत्यन्त क्रोध आया। देवताओं ने नहुष को शांत करने का पुरजोर प्रयास किया। ‘महाराज! आप क्रोधित न हों। आप तीनों लोक के स्वामी हैं आप जैसे राजा भी यदि अधर्म का आचरण करेगा तो निश्चित ही प्रजा का नाश हो जायेगा। इसलिए आप पाप विचार छोड़ दीजिए।’
कामान्ध नाहुष पर इस उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ते देख देवता विपत्ति का हल निकालने के लिए गुरु बृहस्पति के आवास गये। बृहस्पति ने देवताओं के साथ परामर्श किया तथा एक उपाय के साथ शची को लेकर सब-के-सब नहुष के पास गये। (बृहस्पति के सुझाव पर इंद्र की पत्नी शची ने श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन विधिविधान से व्रत करके रक्षासूत्र तैयार किए. स्वास्तिवाचन के साथ उन्होंने ब्राह्मण की मौजूदगी में वह सूत्र इंद्र की दाईं कलाई पर बांधा। इंद्राणी ने इंद्र को रक्षा सूत्र बांधते हुए जो मंत्र पढ़ा था, उसका आज भी विधिवत् पालन किया जाता है. यह मंत्र था- ‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । दानवेन्द्रो मा चल मा च ।।’)
शची ने नहुष से कहा-‘देवश्वर! आप कुछ काल तक प्रतिक्षा करें। तबतक मैं इस बात का निर्णय कर लेती हूँ कि इन्द्र जीवित हैं या नहीं। मेरे मन में संशय बना हुआ है। अतः इसका निर्णय करते ही मैं आपके समक्ष उपस्थित हो जाॐगी। तब तक के लिए आप मुझे क्षमा करें।’

इन्द्राणी के मुख से ऐसा वचन सुनते ही नहुष अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने शची को कुछ समय का वक्त दे दिया। तत्पश्चात सारे देवता भगवना विष्णु की शरण में गये। भगवान ने इन्द्र की दुदर्शा से छूटने का उपाय बताया। उन्होंने इन्द्र के छुपे होने के स्थान का भी देवताओं को संकेत दिए। बृहस्पति और देवता उस स्थान पर गये, जहाँ इन्द्र छिपे थे और पाप से मुक्ति के विधिपूर्वक उपाय किये गये। इधर इन्द्राणी ने भी बृहस्पति जी से भुवनेश्वरी देवी के मन्त्र की दीक्षा लेकर उनकी आराधना आरम्भ कर दी। देवी माँ ने इन्द्राणी को दर्शन दिये और वर मांगने के लिए कहा। शची ने वर मांगा-‘माता मैं पतिदेव का दर्शन करना चाहती हूँ तथा नहुष की ओर से भी भय से मुक्त होना चाहती हूँ।’

देवी ने कामनायें पूर्ण होने का आशिर्वाद दिया और शची को इन्द्र के पास पहुंचा दिया। पति को पाकर शची अत्यन्त प्रसन्न हुई। पति के दर्शन पाने के लिए वह कितने ही वर्षों से तरस रही थी। शची ने पति के गैर मौजूदगी में हुआ सारा वृत्तान्त सिलसिलेवार सुना दिया। इन्द्र ने शची को उसकी बुद्धि और सामथ्र्य की याद दिलायी तथा एक युक्ति सुझा कर इन्द्रलोक वापिस भेज दिया।


नहुष शची को देखकर अतिप्रसन्न हुआ। उसने कहा-‘इन्द्राणी! तुम्हारा स्वागत है। तुमने अपने वचन का पालन किया है। अब तुम मुझे स्वीकार करो।’
शची बोली-‘राजन्! मेरे मन में एक अभिलाषा है, आप उसे पूर्ण करें। मैं चाहती हूँ आप सप्तर्षियों की सवारी करके मुझे लेने मेरे भवन तक आयें।’
नहुष ने कहा-‘इन्द्राणी! तुम्हारी इच्छा तो अतिउत्तम है। ऐसी सवारी तो आज किसी ने भी नहीं की होगी। मैं यह इच्छा अवश्य पूर्ण करूंगा। अब सप्तर्षि मेरे वाहन होंगे।’
यों कह कर नहुष ने सप्तर्षियों को बुलाया और उनकी पालकी पर बैठ कर इन्द्राणी के भवन की ओर प्रस्थान किया। बेचारे ऋिषियों ने ऐसे तो कभी किया नहीं था अतः उनकी चाल बेहद धीमी थी। उस समय नहुष इतनी जल्दीबाजी में था कि तेज चलाने के लिए वह महर्षि अगस्त्य को कोड़े से पीटने लगा। नहुष के अत्यन्त अमर्यादित होने पर क्षमाशील महर्षि भी क्रोधित हो गये। उन्होंने ने नहुष सर्प योनी में चले जाने का शाप दे दिया।’ महर्षि द्वारा शाप मिलते ही नहुष सर्प बन गया और सीधे स्वर्ग से धरती पर आ गिरा। इस तरह शची ने अपने धैर्य और साहसपूर्णता से अत्यन्त विकट परिस्थिति सामना करके सतीत्व की रक्षा की तथा पति को भी पुनः स्वर्ग के सिंहासन पर प्रतिष्ठित किया।


शाक्तमत में सर्वप्रथम मातृ की पूजा होती है। ये माताएँ विश्वजननी हैं, जिनका देवस्त्रियों के रूप में मानवीकरण हुआ है। इसका दूसरा अभिप्राय शक्ति के विविध रूपों से भी हो सकता है, जो आठ हैं तथा विभिन्न देवताओं से सम्बन्धित हैं। 'वैष्णवी' या लक्ष्मी का विष्णु से, 'ब्राह्मी' या ब्रह्माणी का ब्रह्मा से, 'कार्तिकेयी' का युद्ध के देवता कार्तिकेय से, 'इन्द्राणी' का इन्द्र से, 'यमी' का मृत्यु के देवता यम से, 'वाराही' का वराह से, देवी व ईशानी का शिव से सम्बन्ध स्थापित है। इस प्रकार इन्द्राणी अष्टमातृकाओं में से भी एक है। अमरकोश में सप्त मातृकाओं का उल्लेख है:-

ब्राह्मी माहेश्वरी चैव कौमारी वैष्णवी तथा।
वाराही च तथेन्द्राणी चामुण्डा सप्तमातर:॥

षोडश मातृकाओं में तृतीय मातृका शची है -
गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया ।
देवसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः॥
धृतिः पुष्टिस्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदेवता ।
गणेशेनाधिका ह्येता, वृद्धौ पूज्याश्च षोडश॥




प्राचीन काल में त्वष्ट्र प्रजापति के पुत्र त्रिशीर्ष का इंद्र ने अपने वज्रायुध से संहार किया। परिणामस्वरूम वे ब्रह्म-हत्या के अपराधी बने। 

इस कारण से इंद्र का दिव्य तेज चार भागों में विभाजित होकर यमराज, वायु और अश्विनी देवताओं में प्रेवश कर गया। इतने में त्रिशीर्ष के पिता त्वष्ट्र प्रजापति ने अपने पुत्र की मृत्यु पर दुखी होकर अपनी एस जटा काटकर होम कुंड में फेंक दिया। इस जटा से वृत्रासुर नामक एक राक्षस ने जन्म लिया। बड़े होने पर वह सभी लोकों पर अधिकार करने लगा। 

इंद्र वृत्रासुर के आतंक से भयभीत होकर उससे मैत्री करके स्वर्ग पर शासन करते रहे। लेकिन भूदेवी पाप के भार से विचलित हुई और देवनगर अमरावती में जाकर इंद्र से निवेदन किया कि मैं इस पाप का भार नहीं वहन कर सकती। आन इन पापियों से पृथ्वी को मुक्त कर दीजिए।

इंद्र ने भूमाता को सांत्वना देकर भेज दिया। इसके बाद समस्त देवताओं को बुलाकर उन्हें भूलोक में मानवों के रूप में जन्म लेने का आदेश दिया। सभी देवता पृथ्वी पर राजवंशों में पैदा हुए। उस समय इंद्र का दिव्य तेज यम और वायु रूपों में कुंती देवी के गर्भ से युधिष्ठिर और भीम के रूप में अवतरित हुए। इंद्र स्वयं अर्जुन के रूप में उत्पन्न हुए। इंद्र के ही दिव्य तेज का एक अंश अश्विनी देवताओं के रूप में माद्रि के गर्भ से नकुल और सहदेव के रूप में उत्पन्न हुए। 

इस घटना के थोड़े दिनों के बाद इंद्र की पत्नी शची देवी महराजा द्रुपद के यहां अग्नि कुंड से द्रौपदी के रूप में उत्पन्न हुई। द्रौपदी के पांच पति पांडव इंद्र के दिव्य तेज से उत्पन्न हुए थे। इसलिए द्रौपदी पांचों पांडवों की पत्नी पांचाली बन गई। 

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