Sunday, January 6, 2019

गाय का स्वरूप तथा देवताओं का अधिष्ठान



गाय का स्वरूप तथा देवताओं का अधिष्ठान 

भविष्यपुराण, उत्तरपर्व अध्याय ६९ में श्रीकृष्ण महाराज को गोवत्स द्वादशी का महात्म्य बतलाते हुए गाय के स्वरुप तथा उसमें देवताओं के वास का इस प्रकार उल्लेख करते हुए कहते हैं -
क्षीरोदतोयसम्भूता याः पुरामृतमन्थने ।
पञ्च गावः शुभाः पार्थ पञ्चलोकस्य मातरः ॥
नन्दा सुभद्रा सुरभिः सुशीला बहुला इति ।
एता लोकोपकाराय देवानां तर्पणाय च ॥
जमदग्निभरद्वाजवसिष्ठासितगौतमाः ।
जगृहुः कामदाः पञ्च गावो दत्ताः सुरैस्ततः॥
गोमयं रोचनां मूत्रं क्षीरं दधि घृतं गवाम् ।
षडङ्गानि पवित्राणि संशुद्धिकरणानि च ॥
गोमयादुत्थितः श्रीमान् बिल्ववृक्षः शिवप्रियः ।
तत्रास्ते पद्महस्ता श्रीः श्रीवृक्षस्तेन स स्मृतः ।
बीजान्युत्पलपद्मानां - पुनर्जातानि गोमयात् ॥
गोरोचना च माङ्गल्या पवित्रा सर्वसाधिका ।
गोमूत्राद् गुग्गुलुर्जातः सुगन्धिः प्रियदर्शनः ।
आहारः सर्वदेवानां शिवस्य च विशेषतः ॥
यद्वीजं जगतः किंचित् तज्ज्ञेयं क्षीरसम्भवम् ।
दधिजातानि सर्वाणि मङ्गलान्यर्थसिद्धये ।
घृतादमृतमुत्पन्नं देवानां तृप्तिकारणम् ॥
ब्राह्मणाश्चेव गावश्च कुलमेकं द्विधा कृतम् ।
एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति ॥
गोषु यज्ञाः प्रवर्तन्ते गोषु देवाः प्रतिष्ठिताः ।
गोषु वेदाः समुत्कीर्णाः सषडङ्गपदक्रमाः ॥
(उत्तरपर्व ६९। १६-२४)

प्राचीन काल में क्षीरसागर के मन्थन के समय अमृत के साथ पाँच गौएँ उत्पन्न हुई — नन्दा, सुभद्रा, सुरभि, सुशीला तथा बहुला । इन्हें लोकमाता कहा गया है । इनका आविर्भाव लोकोपकार तथा देवताओं की तृप्ति के लिये हुआ है । देवताओं ने अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करनेवाली इन पाँच गौऔं को महर्षि जमदग्नि, भरद्वाज, वसिष्ठ, असित तथा गौतममुनि को प्रदान किया और इन महाभागों ने इन्हें ग्रहण किया । गौओं के छः अङ्ग-गोमय, रोचना, मूत्र, दुग्ध, दधि और घृत — ये अत्यन्त पवित्र और संशुद्धि के साधन भी हैं । गोमय से शिवप्रिय श्रीमान् बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ, उसमें पद्महस्ता श्रीलक्ष्मी विद्यमान हैं, इसीलिये इसे श्रीवृक्ष कहा जाता है । गोमय से ही कमल के बीज उत्पन्न हुए हैं । गोरोचन अतिशय मङ्गलमय है, यह पवित्र और सर्वार्थसाधक है । गोमूत्र से गुग्गुल की उत्पत्ति हुई है, जो देखने में प्रिय और सुगन्धियुक्त है । यह गुग्गुल सभी देवों का आहार है । विशेषरूप से शिव का आहार है । संसार में जो कुछ भी मूलभूत बीज हैं, वे सभी गोदुग्ध से उत्पन्न हैं । प्रयोजन की सिद्धि के लिये सभी माङ्गलिक पदार्थ दधि से उत्पन्न हैं । घृत से अमृत उत्पन्न होता है, जो देव की तृप्ति का साधन है । ब्राह्मण और गौ एक ही कुल के दो भाग हैं । ब्राह्मणों के हृदय में तो वेदमन्त्र निवास करते हैं और गौऔं के हृदय में हवि रहती है । गाय से ही यज्ञ प्रवृत्त होता है । और गौ में ही सभी देवगण प्रतिष्ठित हैं । गाय में ही छः अङ्ग सहित सम्पूर्ण वेद समाहित हैं ।

शृंगमूले गवां नित्यं ब्रह्मा विष्णुश्च संस्थितौ ।
शृङ्गाग्रे सर्वतीर्थानि स्थावराणि चराणि च ॥
शिवो मध्ये महादेवः सर्वकारणकारणम् ।
ललाटे संस्थिता गौरी नासावंशे च षण्मुखः ॥
कम्बलाश्वतरो नागौ नासापुटसमाश्रितौ ।
कर्णयोरश्विनौ देवौ चक्षुर्भ्यां शशिभास्करौ ॥
दन्तेषु वसवः सर्वे जिह्वायां वरुणः स्थितः ।
सरस्वती च कुहरे यमयक्षौ च गण्डयोः ॥
संध्याद्वयं तथोष्ठाभ्यां ग्रीवायां च पुरन्दरः ।
रक्षांसि ककुदे द्यौश्च पार्ष्णिकाये व्यवस्थिता ॥
चतुष्पात्सकलो धर्मो नित्यं जङ्घासु तिष्ठति ।
खुरमध्येषु गन्धर्वाः खुराग्रेषु च पन्नगाः ॥
खुराणां पश्चिमे भागे राक्षसाः सम्प्रतिष्ठिताः ।
रुद्रा एकादश पृष्ठे वरुणः सर्वसन्धिषु ॥
श्रोणीतटस्थाः पितरः कपोलेषु च मानवाः ।
श्रीरपाने गवां नित्यं स्वाहालंकारमाश्रिताः ॥
आदित्या रश्मयो बालाः पिण्डीभूता व्यवस्थिताः ।
साक्षाद्गङ्गा च गोमूत्रे गोमये यमुना स्थिता ॥
त्रयस्त्रिंशद् देवकोट्यो रोमकूपे व्यवस्थिताः ।
उदरे पृथिवी सर्वा सशैलवनकानना ॥
चत्वारः सागराः प्रोक्ता गवां ये तु पयोधराः ।
पर्जन्यः क्षीरधारासु मेघा विन्दुव्यवस्थिताः ॥
जठरे गार्हपत्योऽग्रिदर्क्षिणाग्निर्हृदि स्थितः ।
कण्ठे आहवनीयोऽग्निः सभ्योऽग्निस्तालुनि स्थितः ॥
अस्थिव्यवस्थिताः शैला मज्जासु ऋतवः स्थिताः ।
ऋग्वेदोऽथर्ववेदश्च सामवेदो यजुस्तथा ॥
(उत्तरपर्व ६९ । २५-३७)

गौओं के सींग की जड़ में सदा ब्रह्मा और विष्णु प्रतिष्ठित हैं । शृङ्ग के अग्रभाग में सभी चराचर एवं समस्त तीर्थ प्रतिष्ठित हैं । सभी कारणों के कारणस्वरूप महादेव शिव मध्य में प्रतिष्ठित हैं । गौ के ललाट में गौरी, नासिका में कार्तिकेय और नासिका के दोनों पुटों में कम्बल तथा अश्वतर ये दो नाग प्रतिष्ठित हैं । दोनों कानों में अश्विनीकुमार, नेत्रों में चन्द्र और सूर्य, दाँतों में आठों वसुगण, जिह्वा में वरुण, कुहर में सरस्वती, गण्डस्थलों में यम और यक्ष, ओष्ठों में दोनों संध्याएँ, ग्रीवा में इन्द्र, ककुद् (मौर) — में राक्षस, पार्ष्णि-भाग में द्यौ और जंघाओं में चारों चरणों से धर्म सदा विराजमान रहता है । खुरों के मध्य में गन्धर्व, अग्रभाग में सर्प एवं पश्चिम-भाग में राक्षसगण प्रतिष्ठित हैं । गौ के पृष्ठदेश में एकादश रुद्र, सभी संधियों में वरुण, श्रोणितट (कमर) में पितर, कपोलों में मानव तथा अपान में स्वाहा-रूप अलंकार को आश्रित कर श्री अवस्थित हैं । आदित्यरश्मियाँ केश-समूहों में पिण्डीभूत हो अवस्थित हैं । गोमूत्र में साक्षात् गङ्गा और गोमय में यमुना स्थित हैं । रोमसमूह में तैतीस करोड़ देवगण प्रतिष्ठित हैं । उदर में पर्वत और जंगलों के साथ पृथ्वी अवस्थित है । चारों पयोधरों में चारों महासमुद्र स्थित हैं । क्षीरधाराओं में मेष, वृष्टि एवं जलबिन्दु हैं, जठर में गार्हपत्याग्नि, हृदय में दक्षिणाग्नि, कण्ठ में आह्वनीयाग्नि और तालु में सभ्याग्नि स्थित है । गौओं की अस्थियों में पर्वत और मज्जाओं में यज्ञ स्थित हैं । सभी वेद भी गौओं में प्रतिष्ठित हैं ।

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