Tuesday, January 8, 2019

बुध के जन्म की कथा



बुध के जन्म की कथा
पौरोणिक कथानकों के अनुसार -
श्रीकृष्ण बोले — प्रजापति (ब्रह्मा) की पुत्री जो वृत्रासुर की कनिष्ठा भगिनी है 'तारा' नाम से विख्यात है । उस त्रैलोक्य सुन्दरी को उन्होंने देवों के आचार्य बृहस्पति को सविधान अर्पित किया । यद्यपि उस सुन्दरी तारा के रूपलावण्य द्वारा वे दोनों अत्यन्त मदन व्यथित थे तथापि वह अन्य स्त्रियों की भाँति बृहस्पति की सेवा करती थी । 

उस विशाल लोचना को, जो सौन्दर्य के निधान एवं मुग्धहास करने वाली थी, देखते ही चन्द्रमा काम पीडित होने लगे । उन्होंने संकेत करते हुए उससे मधुर शब्दों में कहा — तारा! आओ, आओ! विलम्ब न करो ।
इंगित आकार समझने वाली उस कुशल तारा ने चन्द्रमा की उस चेष्टा को देखकर शुद्ध भावना से पूर्ण एवं मधुर अक्षरों में कहा — वीर ! आप अंगिरा मुनि के पुत्र, सौम्य एवं सोमराट् हैं, और मैं भी उन्हीं अंगिरा मुनि की ही स्रुषा हूँ, अतः आप को मेरे साथ ऐसी चेष्टा करना उचित नहीं है । सौम्य होने के नाते ही आप की महान् एवं योग की सिद्धि हुई है — महर्षि-प्रवर अंगिरा ने देव, असुर और राक्षसों के लिए तुम्हें राज पद पर प्रतिष्ठत किया है, विधो ! क्या इसका भी स्मरण नहीं हो रहा है ! निशानाथ ! आज आप काम-पीडित क्यों हो रहे हैं । इसलिए मैं कह रहीं हूँ, आप का वह कार्य सिद्ध नहीं हो सकेगा । आप की जैसी इच्छा हो करें, किन्तु देवोत्तम ! मैं पराये की हो चुकी हूँ, अब आप के साथ गमन करना उचित नहीं है ।

इस प्रकार तारा के कहने पर भी उन्होंने काम पीड़ित होने के नाते उस का कहना नहीं माना और उसे पकड़ कर अपनी ओर खींच लिया । बृहस्पति ने उसे देखकर चन्द्रमा की बड़ी निन्दा की । अनन्तर बहुत दिनों तक उन्हें यहीं निश्चय था कि — चन्द्रमा मेरी पत्नी स्वयं भेज देगें । किन्तु चिरकाल की प्रतीक्षा के उपरान्त भी उनके द्वारा भार्या के प्रेषण न करने पर उन्होंने अत्यन्त रुष्ट होकर, जिसमें उनके होंठ फड़क रहे थे, इन्द्र से चन्द्रमा की समस्त चेष्टाओं का विवरण निवेदन किया । उसे सुनकर देवराज ने समस्त देवों और ऋषिगणों को अपने यहाँ, आवाहित किया । किन्तु चन्द्रमा के उपस्थित न होने पर इन्द्र को यह जानते देर नहीं लगी कि — चन्द्रमा ने मेरी आज्ञा की अवहेलना की है । उन्होंने समस्त देवों के समक्ष चन्द्रमा की उस अनीति का स्पष्ट विवेचन किया जिसे सुनकर देव और गन्धर्वगण क्रोधान्ध एवं अत्यन्त क्षुब्ध होकर अपने अस्त्र-शस्त्र समेत रथ पर बैठकर युद्धार्थ चल पड़े । चन्द्रमा ने भी युद्धोन्मुख देवों के निश्चय को भलीभाँति जानकर दैत्य, दानव और राक्षसों को आवाहित कर रण की तैयारी की ली ।

एक परमोत्तम रथ पर बैठकर उन्होंने रण भूमि में पहुंचते ही संग्राम प्रारम्भ कर दिया । तारा गणाधीश्वर चन्द्रमा ने देव-दानवों के शर, तोमर, एवं शूलों द्वारा प्रारम्भ उस भयानक युद्ध में देवों का डटकर सामना करने के अनन्तर अपनी हिमवृष्टि द्वारा इन्द्रादि देवों को मर्माहत कर दिया । राजन्य सत्तम ! देव गन्धर्वो को पराजित करने पर हविभोक्ता अग्नि की भाँति उन्हें परमोत्तम श्री की प्राप्ति हुई । चन्द्रमा के तेज से आहत होने पर देवों ने स्वर्गवासियों के शरण्य भगवान् विष्णु की शरण में पहुँच कर चन्द्रमा की उस घृष्टता पूर्ण चेष्टा का विशद विवेचन किया और इन्द्र ने भली-भाँति उसका विवरण किया जिसे सुनकर भगवान् हृषीकेश ने रुष्ट होकर अपने पुष्पक समेत गरुड़ वाहन पर बैठ कर युद्ध करने का निश्चय किया और भीषण युद्ध प्रारम्भ करने के लिए देवों समेत रणस्थल को प्रस्थान किया । युद्धार्थ रण भूमि में उपस्थित विष्णु को देखकर समरामर्षी चन्द्रमा ने भी दैत्यगणों समेत रणस्थल में पहुँच कर शंख ध्वनि द्वारा अपनी उपस्थित की सूचना दी । प्राण-भक्षी शस्त्रास्त्रों द्वारा इन्द्र, वायु आदि प्रमुख देवों को पराजित कर उन्होंने विष्णु के साथ भी युद्ध करने के लिए निश्चय किया और उनके सम्मुख उपस्थित भी हो गये । चन्द्रमा को अपने साथ युद्ध स्थगित करते न देखकर भगवान् विष्णु ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर उन पर प्रहारार्थ अपने चक्र को ग्रहण किया ।

उस समय उन्हें क्रुद्ध देखकर ब्रह्मा ने देवेश, अजित एवं अव्यय भगवान् विष्णु से कहा — भगवान् अनघ ! आप मेघ मे समान अत्यन्त पुष्ट अंगवाले हैं और इस चक्र द्वरा त्रिभुवन की रक्षा करते हैं अतः मेरी प्रार्थना पर विशेष ध्यान देने की कृपा करें — मैंने चन्द्रमा को द्विजाधिपत्य पद पर प्रतिष्ठित किया है । इसलिए देवकार्यार्थ युद्ध के लिए उपस्थित आप इस प्रकार का अनर्थ न करें । इसे सुनकर भगवान् विष्णु ने देवों और ब्रह्मर्षियों के समक्ष कहा — सिनीवाली एवं कुहू नामक अमावास्या तिथि के दिन यही निशाकर चन्द्रमा नष्ट हो जायेगा और विनष्ट होकर पुनः नाम ग्रहण करेंगे इसमें संशय नहीं । राका (पूर्णिमा) को प्राप्त कर इनकी वृद्धि होगी । वृद्धि होने पर वे देवमन्त्रो के उच्चारण पूर्वक ब्राह्मणों द्वारा दिये गये पिण्डदान को पिता गण और हव्य-कव्य को देव लोग प्राप्त करेंगे । उत्पन्न होने पर इनकी वृद्धि कृष्ण पक्ष में न हो सकेगी । इस प्रकार के दृष्टिगोचर विधान में इनका अध्यापन (वृद्धि) भी ऐसा ही निर्मित है और मेरे इस अमोघ (अस्त्रों) में कभी भी विफलता होना असम्भव है, किन्तु दक्ष द्वारा दिये गये शाप का फल भागी इन्हें अवश्य होना है । इसलिए इनका सुदर्शन प्रेम भी वैसा ही बना रहेगा ।

भगवान् देवाधीश के इस भाँति कहने पर ब्रह्मा ने कहा — देवेश ! आप का सभी कहना परमोत्तम है । पुनः उन्होंने विनय-विनम्र उपस्थित उन चन्द्रमा से कहा तुम गुरु बृहस्पति की भार्या लौटा दो और पुनः कभी ऐसा करने का उत्साह न करना, उन्होंने 'तथास्तु' कहकर तारा बृहस्पति को समर्पित कर दिया और उसी समय समस्त देवों के समक्ष यह भी कहा कि इसमें जो गर्भ है वह मेरा है, अतः उत्पन्न होने पर वह संतान मेरी होगी । इसे सुनकर बृहस्पति ने भी कहा कि — गर्भ मेरी स्त्री में है, अतः मेरे क्षेत्र में उत्पन्न होने के नाते यह पुत्र मेरा होगा । क्योंकि वेद-शास्त्र के निपुण मर्मज्ञ ऋषियों ने कहा भी है कि — वायु द्वारा आहत अथवा किसी प्रकार बोये गये बीज का अंकुर जिसके क्षेत्र में उत्पन्न होता है, वह बीज उसी क्षेत्र वाले का होता है न कि बीज बोने वाले का ।

इसे सुनकर तत्त्ववेत्ता शशांक ने कहा — 'आप ने भलीभाँति विचार कर नहीं कहा । क्योकि नृप विशारद एवं पुराणमर्मज्ञ मुनियों ने वह बताया है कि — पुत्र की माता उसके पिता की भस्त्रा (माठी) के समान है, अतः उससे उत्पन्न होने वाला पुत्र पिता का ही होता है । ब्रह्मा ने इन दोनों विवाद के निवारणार्थ तारा को एकान्त स्थान में ले जाकर उससे धीरे से कहा — मुझे बताओ, यह गर्भ किसका है ? उनके ऐसा कहने पर तारा ने लज्जा वश नम्रमुख करके कुछ भी नहीं कहा । किन्तु उसी समय स्वर्ग को देदीप्यमान गर्भ का उत्सर्जन किया । ब्रह्मा ने उस पुत्र से कहा — पुत्र ! आप किसके पुत्र हैं । उसने कहा — ब्रह्मन् ! मैं चन्द्रमा का पुत्र हूँ । मैंने कहा — यह तथ्य कह रहा है और देवों ने कहा — यह समस्त ज्ञानियों में परमोत्तम चेष्टा है अतः इसको बुध कहना चाहिए ।

अनन्तर चन्द्रमा ने पुत्र लेकर और बृहस्पति ने अपनी भार्या लेकर अपने-अपने गृह को प्रस्थान किया । पुत्र प्राप्ति होने पर सोम को अत्यन्त हर्ष हुआ ।


बुध का जन्म हुआ तो चंद्रमा की सत्ताईस पत्नियों को क्रोध आ गया क्योंकि मनमार्गी चंद्रमा बहुधा रोहिणी को छोड़कर किसी को भी प्रेम योग्य नहीं समझते थे, इसलिए मन का विकार बुध पर शाप के रूप में निकला। उन सभी ने शिशु बुध को शाप दिया कि वो कभी भी सभी अन्य ग्रहों कि भाँति उनमें भ्रमण नहीं कर पाएगा। इसलिए ज्योतिष गणनाओं में बुध की गति गणना शुक्र की गति में आंकलन कर की जाती है। इसका वैज्ञानिक कारण यह भी है कि सूर्य के अत्यधिक निकट होने के कारण बुध की गणना संभव नहीं हो पा रही थी, इसलिए शुक्र और बुध की गति का भेद लेकर गति संधान किया जाता है।

द्वितीय कथा

देवताओं के गुरु बृहस्‍पति द्विस्‍वभाव राशियों के अधिपति हैं। इस कारण उनमें भी दोगले स्‍वभाव की अधिकता रहती है। एक दिन बृहस्‍पति की इच्‍छा हुई कि वे स्‍त्री बनें। वे ब्रह्मा के पास पहुंचे और उन्‍हें अपनी इच्‍छा बताई। सर्वज्ञाता ब्रह्मा ने उन्‍हें मना किया। ब्रह्मा ने कहा कि तुम समस्‍या में पड़ जाओगे लेकिन बृह‍स्‍पति ने जिद पकड़ ली तो ब्रह्मा ने उन्‍हें स्‍त्री बना दिया।
रूपमती स्‍त्री बने घूम रहे गुरु पर चंद्रमा की नजर पड़ी और चंद्रमा ने गुरु का बलात्‍कार कर दिया। गुरु हैरान कि अब क्‍या किया जाए। वे ब्रह्मा के पास गए तो उन्‍होंने कहा कि अब तो तुम्‍हे नौ महीने तक स्‍त्री के ही रूप में रहना पड़ेगा। गुरु दुखी हो गए। जैसे-तैसे नौ महीने बीते और बुध पैदा हुए। बुध के पैदा होते ही गुरु ने स्‍त्री का रूप त्‍यागा और फिर से पुरुष बन गए। जबरन आई संतान को भी उन्‍होंने नहीं संभाला।

ऐसे में बुध बिना मां और बिना बाप के अनाथ हो गए। प्रकृति ने बुध को अपनाया और धीरे-धीरे बुध बड़े होने लगे। बुध को अकेला पाकर उनके साथ राहु और शनि जैसे बुरे मित्र जुड गए। बुरे मित्रों की संगत में बुध भी बुरे काम करने लगे। इस दौरान बुध का सम्‍पर्क शुक्र से हुआ। शुक्र ने उन्‍हें समझाया कि तुम जगत के पालक सूर्य के पास चले जाओ वे तुम्‍हे अपना लेंगे। बुध सूर्य की शरण में चले गए और सुधर गए।

बुध अपनी संतान को त्‍यागने वाले गुरु और नीच के चंद्रमा से नैसर्गिक शत्रुता रखते हैं। राहु और शनि के साथ बुरे परिणाम देते हैं और शुक्र और सूर्य के साथ बेहतर। सौर मण्‍डल में गति करते हुए जब भी सूर्य से आगे निकलते हैं बुध के परिणामों में कमी आ जाती है और सूर्य से पीछे रहने पर उत्‍तम परिणाम देते हैं। अपनी माता की तरह बुध के अधिपत्‍य में भी दो राशियां है। गुरु के पास जहां धनु और मीन द्विस्‍वभाव राशियां हैं वहीं बुध के पास कन्‍या और मिथुन राशियों का स्‍वामित्‍व है। यह है बुध की कहानी।
तृतीय कथा
विष्णुपुराण के चतुर्थ अंश के छठें अध्याय में भी बुध के जन्म की कथा इस प्रकार है -

ब्रह्मा के पुत्र अत्रि प्रजापति थे. और अत्रि प्रजापति के पुत्र हुए चन्द्रमा। तब ब्रह्माजी ने चन्द्रमा को औषधि द्विजजन और नक्षत्रगण का अधिपति घोषित किया। चन्द्रमा ने राजसुयज्ञ का अनुष्ठान किया। जिससे चन्द्रमा को अपने प्रभाव और अधिपति होने का राजमद सवार हो गया। और घमंड में मदोन्मत हो जाने के कारण उसने समस्त देवताओं के गुरु वृहस्पति कि पत्नी तारा का अपहरण कर लिया।
तब वृहस्पति जी ब्रह्माजी कि शरण में गये अतः ब्रह्मा और देवतागण चन्द्रमा के पास गये। और वृहस्पति कि पत्नी तारा को चन्द्रमा से वापस करने कि बात कही। लेकिन ब्रह्माजी और देवर्षियों के बहुत कहने पर भी चन्द्रमा ने तारा को वापस नहीं किया। तो स्थिति युद्ध कि बन गई। वहीँ शुक्र जी चन्द्रमा कि तरफ चले गये क्योंकि वे वृहस्पति से ईर्ष्या करते थे।
अंगिरा से शिक्षा प्राप्त करने वाले भगवान रूद्र ने वृहस्पति कि सहायता की क्योंकि वृहस्पति जी अंगिरा के पुत्र थे। अब चन्द्रमा की तरफ से शुक्र जी और जम्भ कुम्भ आदि दैत्य सहित सहायता के लिए उपस्थित हुए। और वृहस्पति जी की तरफ से भगवान रूद्र समेत समस्त देव सेना और इंद्र जी उपस्थित हुए. इस प्रकार तारा के लिए भयंकर युद्ध छिड़ गया तथा रूद्र आदि देवगन दानवों के लिए और दानव देवतागण के लिए भयंकर अस्त्र शस्त्र छोड़ने लगे। इस तरह समस्त संसार भयंकर देव असुर संग्राम से त्रस्त होकर ब्रह्माजी के शरण में गया। तब ब्रम्हा जी ने युद्ध रोकवा कर चन्द्रमा को समझाया और वृहस्पति की पत्नी तारा को वापस दिलवाया। लेकिन वृहस्पति के सामने एक और समस्या आ गई । क्योंकि वह गर्भवती थीं। उसके गर्भ को देखकर वृहस्पति ने कहा कि मेरे क्षेत्र में किसी और का गर्भ धारण करना ठीक नहीं हैं अतः ऐसे दूर करो मेरी नजरों से। वृहस्पति के ऐसा कहने पर उस पतिव्रता ने पति के खेल अनुसार वह गर्भ इष्टिकास्तम्भ मतलब सींक कि झाड़ी में छोड़ दिया. उस छोड़े हुए ने अपने तेज़ से समस्त देवताओं के तेज़ को मलिन कर दिया ।
तदन्तर उस बालक कि सुंदरता के कारण चन्द्रमा और वृहस्पति दोनों को उत्सुक देखा देवताओं ने संदेह हो जाने के कारण तारा से पूछा कि "हे सुभागे तुम हमें सच सच बताओ यह पुत्र चन्द्रमा के हैं या वृहस्पति का। देवताओं के ऐसा कहने पर तारा ने लज्जावश कुछ भी नहीं कहा। ज़ब बहुत पूछने पर भी तारा ने कुछ नहीं बताया तो वह बालक स्वयं शाप देने के लिए उद्धत् होकर बोला कि अरे दुष्ट माता मेरे पिता का नाम तू क्यों नहीं बताती अभी मैं तेरी ऐसी गति करूँगा कि तू धीरे बोलना भूल जाएगी। तब ब्रह्माजी ने बालक को रोक कर तारा से पूछा कि बेटियों सच सच बता यह पुत्र किसका हैं वृहस्पति का या चन्द्रमा का।
ब्रह्माजी के इस तरह पूछे जाने पर तारा ने लज्जापूर्वक कहा कि यह पुत्र चन्द्रमा का हैं। यह सुनकर चन्द्रमा खुश हो गये और बालक को ह्रदय से लगाकर बोले कि पुत्र तुम तो बहुत बुद्धिमान हो. और उस बालक का नाम बुध रखा।

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